आओ हम निन्दा उठाये हुए यीशु के साथ निकल चलें

इसी कारण, यीशु ने भी लोगों को अपने ही लोहु के द्वारा पवित्र करने के लिये फाटक के बाहर दुःख उठाया। 13 सो आओ, उस की निन्दा अपने ऊपर लिए हुए छावनी के बाहर उसके पास निकल चलें। 14 क्योंकि यहां हमारा कोई स्थिर रहनेवाला नगर नहीं, बरन हम एक आनेवाले नगर की खोज में हैं। 15 इसलिये हम उसके द्वारा स्तुतिरूपी बलिदान, अर्थात् उन होठों का फल जो उसके नाम का अंगीकार करते हैं, परमेश्वर के लिये सर्वदा चढ़ाया करें। 16 पर भलाई करना, और उदारता न भूलो ; क्योंकि परमेश्वर ऐसे बलिदानों से प्रसन्न होता है।

आराम नहीं, आवश्यकता की ओर बढ़ो

इब्रानियों 13: 12-16 की बात ऊँचे स्वर की और स्पष्ट है: मसीहियो, आराम नहीं, आवश्यकता की ओर बढ़ो ! आराम नहीं, आवश्यकता की ओर बढ़ो !

हमें प्रमुख बुलाहट पद 13 में है: ‘‘सो आओ, उस की निन्दा अपने ऊपर लिए हुए छावनी के बाहर उसके पास निकल चलें।’’ अर्थात्, यीशु के साथ आवश्यकता की ओर बढ़ो, सुख या आराम की ओर नहीं। पद 13 में ये आज्ञा, यीशु की मृत्यु पर आधारित है, कि ये कैसे हुई और इस ने क्या निष्पादित/पूरा किया। पद 12: ‘‘यीशु ने भी, लोगों को अपने ही लोहु के द्वारा पवित्र करने के लिये {यही इसने पूरा किया}, फाटक के बाहर दुःख उठाया {ये इस प्रकार से हुआ}।’’ ‘‘इसलिये आओ, … छावनी के बाहर उसके पास निकल चलें।’’ दूसरे शब्दों में, वह कहता है, ‘‘मसीहियो, यीशु के साथ उसके दुःखभोग में जुड़ जाओ !’’ चूँकि यीशु ने फाटक के बाहर दुःख उठाया, अपनी सुरक्षा और मेल-जोल और आराम की छावनी से बाहर निकलो, और कलवरी के रास्ते पर उसके साथ निन्दा उठाने के लिए तैयार रहो। और चूँकि तुम्हें पवित्र करने के लिए ‘वह’ वहाँ मर गया, इसे अपनी ताकत या क्षमता में, मात्र अनुकरण का एक ढोंग करने के रूप में मत करो ; इसे उस सामर्थ और पवित्रता में करो जिसे मसीह ने ‘उसकी’ मृत्यु में, तुम्हारे लिए मोल लिया है। अन्यथा यह विश्वास का एक कृत्य न होकर अपितु नायक बनने की क्रिया होगी ; और आपको महिमा मिलेगी, मसीह को नहीं, और परमेश्वर प्रसन्न नहीं होगा। क्योंकि विश्वास के बिना परमेश्वर को प्रसन्न करना असम्भव है (11: 6)।

अतः मुख्य बात है: मसीहीजन, एक ऐसे उद्धारकर्ता के साथ, कैसे जीआ जावे, वो ये है - सुख-आराम नहीं, आवश्यकता की ओर बढ़ो।

अब, मैं जानता हूँ कि इस प्रोत्साहन का दुरुपयोग किया जा सकता है। एक अविवाहित स्त्री कह सकती है, ‘‘ठीक है, जितना में ढूंढ सकती हूँ, मुझे सबसे कमजोर, सर्वाधिक जरूरतमंद पुरुष को ढूंढने की खोज में रहना चाहिए और उससे इन आशाओं में विवाह कर लेना चाहिए कि मैं उसका कुछ भला कर सकूँ।’’ अथवा एक नौजवान व्यवसायी कह सकता है, ‘‘ठीक है, मुझे कमप्यूटर के पेशे में एक सर्वाधिक अस्थिर कम्पनी की खोज में रहना चाहिए और वहाँ इन आशाओं से नौकरी पाने का प्रयास करना चाहिए कि उसकी स्थिति पूरी तरह से उलट दूँ।’’ अथवा यदि आपकी कार को मरम्मत की आवश्यकता है, आप कह सकते हैं, ‘‘ठीक है, मैं ऐसे मैकेनिक को ढूंढता हूँ जिसका धंधा बन्द होने की कगार पर है क्योंकि वह स्पर्धा नहीं कर पा रहा है, और अपनी कार वहाँ ले जाऊँगा कि उसकी मदद करूँ।’’ ‘‘इतना सब आपकी व्याख्या के लिए; सुख-आराम नहीं, आवश्यकता की ओर बढ़ो।’’

यीशु की मूलभूत बुलाहट

यीशु की बुलाहट के इन दुरुपयोगों के साथ समस्या ये है कि ये मूल बात के पर्याप्त निकट भी नहीं हैं। वे मात्र मूर्खतापूर्ण हैं। आपको क्यों अनुमान भी करना चाहिए कि आपको विवाह कर लेना चाहिए ? हो सकता है, सुख-आराम नहीं आवश्यकता की ओर बढ़ो के प्रति यीशु की बुलाहट, किसी अधिक बड़ी सेवा की ख़ातिर पूर्णतया समर्पित कुंवारेपन की एक बुलाहट है। या हो सकता है ये किसी ऐसे प्रकार के व्यक्ति से विवाह करने की बुलाहट है, जो पर्याप्त मजबूत और पर्याप्त उग्र हो कि आपके साथ छावनी के बाहर जा सके और आपके साथ दुःख उठा सके, और जैसा कि बहुतेरे विवाह हैं, आत्म-तल्लीनता की आरामदेह छोटी हौदी में डूबने की बनिस्बत, दूसरों के भले के लिए आपके जीवनों को एक-साथ उच्चतम सीमा तक बढ़ाये।

और क्यों आपको सोचना चाहिए कि आपको अमेरिका में एक नौकरी ढूंढना ही है - ऐसी कम्पनी के साथ जो कमजोर या मजबूत है - जबकि समान नौकरियाँ ऐसे देशों में उपलब्ध हैं जहाँ बमुश्किल कोई मसीही हैं और आपकी ज्योति की अत्याधिक आवश्यकता है। अथवा हो सकता है कि आप यहाँ किसी मजबूत कम्पनी के लिए काम करें क्योंकि वहाँ नाश होते हुए लोग हैं या क्योंकि वहाँ राज्य-मूल्यों को फैलाने के अत्यन्त प्रभावकारी अवसर हैं और पलंगपोश बनाना, सभी बातों में परमेश्वर की सर्वोच्चता की, सेवा करता है।

आपको क्यों कल्पना करना चाहिए कि आपके पास एक कार हो ? हो सकता है कि आपकी जिन्दगी के लिए यीशु की बुलाहट है कि ऐसी जगह और लोगों के पास जायें जहाँ आपको कार की कोई आवश्यकता न हो - क्योंकि वहाँ कोई सड़कें, और कोई चर्च और कोई मसीहीगण नहीं हैं। या हो सकता है कि आपके पास एक कार होना चाहिए जो ऐसा काम देती है, कि आप उसे आराम नहीं आवश्यकता की ओर, बिना रुकावट के चला सकें।

यीशु की मूल-भूत बुलाहट का, कि कलवरी के रास्ते पर उसके साथ जुड़ जायें - छावनी के बाहर जाने और उसके साथ निन्दा उठाने - सदैव व्यंग और उपहास किया व इसे मूर्खता दिखाया जा सकता है। पलायन का ये एक सबसे सरल तरीका है। ये बहुत प्रलोभित करनेवाला है। ये आपको बुद्धिमान प्रगट करता है। ये यीशु को मूर्ख प्रगट करता है। और ये आपको एक खाली, उथली, आराम-तलबी की खोज करती दिनचर्या के मार्ग में (बहकाते हुए कुछ और वर्षों के लिए) जाने के लिए स्वतंत्र करती है, जिसे कुछ लोग जिन्दगी कहते हैं।

‘‘सो आओ, उस की निन्दा अपने ऊपर लिए हुए छावनी के बाहर उसके पास निकल चलें (पद 13) … क्योंकि (पद 12) यीशु ने भी लोगों को अपने ही लोहु के द्वारा पवित्र करने के लिये फाटक के बाहर दुःख उठाया।’’ जिस तरह ‘वह’ मरा और क्यों ‘वह’ मरा, हमारे लिए, जिन्हें ‘वह’ ‘उसके’ साथ जाने के लिए बुलाता है, पूरा-पूरा अन्तर ले आता है। जिस तरह ‘वह’ मरा, वो था फाटक से बाहर - पवित्र नगर, यरूशलेम, के प्रतीत होते सुख व सुरक्षा व मेल-जोल के बाहर – फाटक से बाहर, गोलगुता पर, स्वेच्छा से, बलिदानपूर्वक, प्रेम से। और ‘वह’ क्यों मरा (पद 13), लोगों को पवित्र करने के लिए, शेष संसार से हमें भिन्न बनाने के लिए, हमें पवित्र व प्रेममय व अतिवादी व जोखि़म उठानेवाले, और तुलना में उससे जो ये संसार प्रस्तुत करता है, एक अन्य नियति के द्वारा पूर्णतः विमोहित।

पवित्रीकरण का वास्तव में क्या अर्थ है ?

ये पवित्रीकृत लोग क्या हैं, इस पर एक पूरी पकड़ बनाने के लिए अगली आयत (पद 14) पर विचार कीजिये। पवित्रीकरण का वास्तव में क्या अर्थ है ? लोगों को पवित्र करने के लिए मसीह मरा ; अर्थात्, उस प्रकार के लोगों को उत्पन्न करना जो अपनी सम्पूर्ण जिन्दगी के बारे में ऐसा सोचने के इच्छुक हैं, मानो निन्दा सहने के लिए मसीह के साथ छावनी के बाहर जाना है। ऐसा कैसे ? इन लोगों को क्या हो गया ? पद 14 हमें दिखाता है। वे यीशु के साथ कलवरी के रास्ते पर, सुख-आराम नहीं, आवश्यकता की ओर जाने को इच्छुक हैं। ‘‘क्योंकि यहां हमारा कोई स्थिर रहनेवाला नगर नहीं, बरन हम एक आनेवाले नगर की खोज में हैं।’’

इसका गूढ़ अर्थ क्या है ? बात ये है कि मसीह इसलिए नहीं मरा कि ‘मीनियापोलीस’ को इस युग में एक स्वर्गलोक बना दे। वह मरा ताकि हम हमारी व्यक्तिगत जिन्दगियों को, पृथ्वी पर स्वर्ग बनाने के प्रयास को रोक देने के लिए इच्छुक हो जावें - ‘मीनियापोलीस’ में या कहीं और। किस सामर्थ से ? क्योंकि हम मासोक-वादी (परपीडि़त-कामुक) हैं ? क्योंकि हम दुःखभोग से प्रेम करते हैं ? नहीं। क्योंकि ‘‘हम एक आनेवाले नगर की खोज में हैं।’’ क्या आप इसे देखते हैं ? पद 14: ‘‘क्योंकि यहां हमारा कोई स्थिर रहनेवाला नगर नहीं, बरन हम एक आनेवाले नगर की खोज में हैं।’’ छावनी से बाहर जाने का हमारा ध्येय - निन्दा उठाते हुए, लोगों की चिन्ता करते हुए, सुख-आराम नहीं, आवश्यकता की ओर - इस कारण है कि एक नगर आ रहा है, ‘‘जीवते परमेश्वर का नगर’’ (इब्रानियों 12: 22)। जो यह युग प्रस्तुत करता है, ये उससे बेहतर है और ये सर्वदा बना रहेगा, और सबसे उत्तम बात, महिमा में परिपूर्ण, परमेश्वर वहाँ होगा (12: 23)।

इब्रानियों में ये नमूना हमने बारम्बार देखा है। हमने इसे 10: 34 में देखा जहाँ मसीहीगण, कैदियों के पास जाने के द्वारा, आवश्यकता की ओर बढ़े, सुख-आराम की ओर नहीं। जब इसकी कीमत उन्हें अपनी सम्पत्ति के रूप में चुकानी पड़ी, वे आनन्दित हुए, इब्रानियों के नाम पत्री कहती है, क्योंकि ‘‘यह जानकर, कि तुम्हारे पास एक और भी उत्तम और सर्वदा ठहरनेवाली सम्पत्ति है’’ - वे एक आनेवाले नगर की खोज में थे, सुख और पृथ्वी पर स्वर्ग नहीं। अतः वे आवश्यकता की ओर बढ़े, सुख-आराम की ओर नहीं।

हमने इसे 11: 25-26 में देखा जब मूसा को, ‘‘पाप में थोड़े दिन के सुख भोगने से परमेश्वर के लोगों के साथ दुःख भोगना और उत्तम लगा और मसीह के कारण निन्दित होने को मिसर के भण्डार से बड़ा धन समझकर,’’ वह आवश्यकता की ओर बढ़ा, सुख-आराम की ओर नहीं। क्यों ? किस सामर्थ से ? पद 26 कहता है, ‘‘क्योंकि उस की आंखें फल पाने की ओर लगीं थीं’’ - अर्थात्, वह उस आनेवाले नगर की बाट जोह रहा था।

हमने इसे 12: 2 में देखा, जहाँ यीशु सुख-आराम नहीं, आवश्यकता की ओर बढ़ा, जब ‘उसने’ ‘‘लज्जा की कुछ चिन्ता न करके, क्रूस का दुःख सहा।’’ कैसे ? किस सामर्थ से ? पद 2 कहता है कि उस आनन्द के लिये जो उसके आगे धरा था। अर्थात्, ‘उसने’ उस आनेवाले नगर की ओर देखा।

हमने इसे 13: 5-6 में देखा जहाँ मसीहीगण, अपने जीवन को पैसे के प्रेम से स्वतंत्र तथा जो उनके पास है उसी में सन्तुष्ट रहते हुए, सुख-आराम नहीं, आवश्यकता की ओर बढ़ते हैं। कैसे ? किस सामर्थ से ? पद 5: ‘‘क्योंकि परमेश्वर ने कहा है, ‘मैं तुझे कभी न छोड़ूंगा, और न कभी तुझे त्यागूंगा।’ इसलिये हम बेधड़क होकर कहते हैं, ‘प्रभु मेरा सहायक है ; मैं न डरूंगा ; मनुष्य मेरा क्या कर सकता है ?’’’ - मैं अभी और सदैव परमेश्वर की सुरक्षा में सुरक्षित हूँ। मैं ऐसे नगर का नागरिक हूँ जो आनेवाला है और कोई मुझे इस से अलग नहीं कर सकता। अतः मैं आवश्यकता की ओर बढूंगा, सुख-आराम की ओर नहीं।

अतः इब्रानियों 13: 14 की बात बार-बार पुष्ट होता है: मसीह इसलिए नहीं मरा कि इस युग के नगरों को - उपनगरों को - एक स्वर्गलोक बना देने दे। ‘वह’ मरा ताकि हम पृथ्वी पर - नगर में और उपनगर दोनों में, अपनी जिन्दगियों को स्वर्ग बनाने के प्रयास को रोकने के इच्छुक हो जावें, और इसके बनिस्बत यीशु के साथ, सुख व मेल-जोल व सुरक्षा की छावनी से बाहर जायें, जहाँ आवश्यकताएँ हैं और जहाँ ‘वह’ भी कहता है, आज (वो दिन जब तुम मरते हो) तुम मेरे साथ स्वर्गलोक में होगे (लूका 23: 43)। हम आवश्यकता की ओर बढ़ते हैं, सुख-आराम की ओर नहीं, क्योंकि हम एक आनेवाले नगर की बाट जोहते हैं। परमेश्वर के साथ एक महिमामय भविष्य में मूल आत्म-विश्वास ही है जिसे उत्पन्न करने के लिए मसीह मरा। और जब यह आपको वश में कर लेगा है, आप पवित्र किये जायेंगे (पद 12) और यीशु के साथ आवश्यकता की ओर जायेंगे, आराम की ओर नहीं।

परमेश्वर के प्रति स्तुति और लोगों के लिए प्रेम का एक जीवन

आइये हम और अधिक सुस्पष्ट हो जायें। इस जीवन में क्या सम्मिलित होता है जो आवश्यकता की ओर जाता है, आराम की ओर नहीं - छावनी के बाहर कलवरी की सड़क पर, उस आनेवाले नगर में उस आनन्द के लिए जो हमारे लिए धरा है, यीशु के साथ दुःखभोग की ओर बढ़ता हुआ, ये जीवन ? पद 15 एक उत्तर देता है और पद 16 एक अन्य।

पद 15 कहता है, ये परमेश्वर की स्तुति का एक जीवन है - वास्तविक, हार्दिक, मौखिक स्तुति - उस प्रकार की जो आपके हृदय के एक फल और उमण्डने के रूप में आपके मुँह से निकलता है। पद 15: ‘‘इसलिये हम उसके {यीशु} द्वारा स्तुतिरूपी बलिदान, अर्थात् उन होठों का फल जो उसके नाम का अंगीकार करते हैं, परमेश्वर के लिये सर्वदा चढ़ाया करें।’’

पद 16 कहता है, ये लोगों के लिये एक प्रेम का जीवन है - वास्तविक, व्यावहारिक, दूसरों की भलाई के लिए अपना जीवन बाँटते हुए: ‘‘पर भलाई करना, और उदारता न भूलो; क्योंकि परमेश्वर ऐसे बलिदानों से प्रसन्न होता है।’’

दूसरे शब्दों में, जब हम यीशु के साथ छावनी के बाहर ‘उसके’ बलिदान के स्थान पर जाते हैं, हम पूर्व की अपेक्षा अधिक स्पष्टता से देखते हैं कि हमारे लिए उसका बलिदान - पापियों के लिए एक बार व सर्वदा के लिए ‘उसका’ स्वयँ का बलिदान, (इब्रानियों 9: 26, 28) - सभी बलिदानों का एक अन्त ले आता है, केवल दो प्रकार को छोड़कर: परमेश्वर के प्रति स्तुति का बलिदान (पद 15) और लोगों के प्रति प्रेम का बलिदान (पद 16)।

अतः हम यहाँ हैं छावनी के बाहर, कलवरी की सड़क पर यीशु के साथ, निन्दा किये जाते हुए, आवश्यकता की ओर बढ़ते हुए, सुख-आराम की ओर नहीं - और ये सड़क क्या है ? ये किस ओर जा रही है ? व्यावहारिक रूप से आज दोपहर को ? आपके लिये ? इस सप्ताह ? इस वर्ष ? शायद ये वो सड़क है जो 10/40 खिड़की में सुसमाचार न पाये हुए लोगों के लिए उपवास और प्रार्थना की ओर ले जाती है, अथवा यूक्रेनियायी अनाथों के साथ सम्मिलित होने के लिए मिनिस्ट्री-हॉल में, अथवा ‘सारा’ ‘नओमी’ और अन्य की सहायता करने, हमारे पड़ोस के गर्भपात-चिकित्सालय के नये स्थल, साऊथ 5वीं स्ट्रीट स्थित ‘मिडवेस्ट हेल्थ सेंटर फॉर वीमैन’ को, अथवा ‘ग्लैन व पैट्टी लारसन’ तथा अन्य के घर को जो अनन्तकाल के किनारे पर खड़े हैं, अथवा सतायी गई कलीसिया के लिए प्रेयर जरनल (प्रार्थना दैनिकी) के 18 पृष्ट पर ताकि उन एजेन्सियों को खोज सकें जो आपको सारे संसार में दुःख उठाते मसीहियों की सहायता करने के लिए आपको व्यावहारिक तरीके दें, अथवा टेलीफोन तक कि एक भटकते हुए मित्र को एक दुरूह फोनकॉल करके याचना करें कि यीशु के पास वापिस आ जावे, अथवा एक पड़ोसी तक जो आप जानते हैं कि अविश्वास में नाश हो रहा है।

आराम नहीं, आवश्यकता की ओर कलवरी की सड़क, प्रेम और स्तुति के एक हजार सम्भावित जगहों तक ले जाती है।

काश परमेश्वर इब्रानियों 13: 13 का उपयोग करके आपको हिलाकर मुक्त करे

आज सुबह मेरी प्रार्थना ये है कि आपके मध्य जो जवान हैं जिनका पाठ्यकम अभी तक सुनिश्चित नहीं हुआ है, और आप बुजुर्ग सेवानिवृत लोग, जिनके पास ऊर्जा बची है और बहुत आजादी है, और बीच में आप अन्य लोग जो इस सब को पूर्णतः भुनाना चाहेंगे और अपनी जिन्दगियों के साथ ऐसा आमूल रूप से भिन्न करना चाहते हैं जो दर्जनों कुंवारों और विवाहित लोगों ने सालों-साल इस चर्च में किया है - मेरी प्रार्थना है कि आप सभी के मध्य, परमेश्वर इब्रानियों 13: 13 से इस वचन को उपयोग करे कि आपको नींव से हिलाये और आपको आपके स्थान से मुक्त करे और संसार के सुसमाचार न पाये हुए लोगों तक, यीशु मसीह में परमेश्वर के अनुग्रह की महिमा के सुसमाचार के साथ पहुँचाये। मैं जानता हूँ कि ये ‘मिशन्स वीक’ नहीं है, लेकिन आप में से कुछ के लिए आज सुबह मैं इस मूल-पाठ में से यही सुनता हूँ।

सारे संसार में, आज सुबह, सैंकड़ों हजारों मसीहीगण, मात्र मसीही होने के लिए अपने जिन्दगियों का जोखि़म उठा रहे हैं। हम प्रकाशितवाक्य 5: 11 से जानते हैं कि कारण कि मसीह छावनी से बाहर गया और दुःख उठाया ये था कि हर एक कुल भाषा और लोग और जाति में से लोगों को छुड़ाये। और यदि यही कारण था कि ‘वह’ गया, तब इसका क्या अर्थ होना चाहिए जब इब्रानियों 13: 13 कहता है, ‘‘सो आओ, उस की निन्दा अपने ऊपर लिए हुए छावनी के बाहर उसके पास निकल चलें’’ ? क्या हम में से अनेकों के लिए इसका अर्थ नहीं होना चाहिए: छावनी छोड़ो ! छावनी छोड़ो ! आरामदेह ‘बेतलेहम’ छावनी छोड़ो ! आरामदेह मिनियापोलीस छावनी छोड़ो। आरामदेह, सुरक्षित नौकरी छोड़ो। और सुख-आराम नहीं, आवश्यकता की ओर बढ़ते हुए, कलवरी की सड़क पर यीशु के साथ जुड़ जाओ।

नहीं, इस मूल-पाठ का पालन करने में आपको संस्कृतियों को लांघना नहीं पड़ेगा। मैंने उसके सात उदाहरण दिये हैं। किन्तु सुनिये: मसीह ने छावनी के बाहर विभिन्न जातियों की ख़ातिर दुःख उठाया, जिनमें से सैंकड़ों के पास कोई चर्च नहीं, कोई पुस्तकें नहीं, कोई शिष्टमण्डल नहीं जो उन पर कम से कम ये समाचार प्रगट करे कि मसीह इस संसार में पापियों को बचाने आया। अतः मैं इस पर दबाव डालता हूँ: इब्रानियों 13: 13, आराम नहीं, आवश्यकता की ओर बढ़ने की एक बुलाहट है। और वो आवश्यकता जो इस रविवार, मेरे कानों तक चिल्लाती है, ऐसे लोगों की आवश्यकता है जहाँ मसीही सताव के कारण नाश हो रहे हैं, और जहाँ पापी नाश हो रहे हैं क्योंकि वहाँ कोई मसीही नहीं हैं जो सताये जाने के लिए तैयार हों।

मैं आपसे याचना करता हूँ, जब आप अपने भविष्य के बारे में स्वप्न देखते हैं, चाहे आप 8 के हैं या 18 या 38 या 80 के, इब्रानियों 13: 13 का स्वप्न देखिये, ‘‘सो आओ, उस की निन्दा अपने ऊपर लिए हुए छावनी के बाहर उसके पास निकल चलें।’’

हम अकेले आगे नहीं जाते

आपकी आराधना पुस्तिका में छपे हुए अन्तिम भजन ‘वी रेस्ट ऑन दी’ को गाने के द्वारा, हम स्वयँ को इसे अर्पित करने जा रहे हैं। आप में से कई ये जानते हैं कि इसके पीछे एक कहानी है जो इसे इस क्षण विशेष बल देती है। जनवरी 1956 में, इक्वाडोर में, सुख-सुविधाओं की ओर नहीं अपितु अऊका-भारतीयों (दक्षिण अमेरिकी भारतियों की एक जनजाति) की आवश्यकता की ओर बढ़ते हुए ‘जिम ईलियट’, पेट फलेमिंग’, ‘एड मैक्कुली’, ‘नेट सेन्ट’, और ‘रोज़र यूडेरियन’ मारे गए थे। इस शहादत़/प्राणोत्सर्ग के ‘एलीसाबेथ ईलियट’ के विवरण के 16वें अध्याय का शीर्षक, इस भजन से एक पंक्ति है: ‘‘हम अकेले आगे नहीं जाते।’’

पॉम-बीच (समुद्री किनारा) पर अपनी मृत्यु से थोड़ी देर पहिले ही उन्होंने ये भजन गाया था। ईलियट लिखती हैं,

अपनी प्रार्थनाओं की समाप्ती पर उन पाँच पुरुषों ने, ‘‘फिनलेन्डिया’’ की भावोत्तेजक धुन पर अपना एक मनपसन्द भजन गाया, ‘वी रेस्ट ऑन दी’। ‘जिम’ व ‘एड’ ने ये भजन अपने कॉलेज के दिनों से गाया हुआ था और आयतों को कण्ठस्थ जानते थे। आखिरी आयत पर उनकी आवाजें गहरी कायलियत से रुंध गईं।

हम तुझ पर टिकाव लिये हैं, हमारी ढाल और हमारे रक्षक, युद्ध आपका है, आपकी स्तुति होवे, जब मुक्तामय भव्य विजेताओं के फाटकों से गुजरते हुए, हम आपके साथ विश्राम करेंगे अन्तहीन दिनों तक।

उस आत्मविश्वास के साथ वे यीशु के पास छावनी के बाहर निकल पड़े। वे आवश्यकता की ओर बढ़े, सुख-आराम की ओर नहीं, और वे मर गए। और ‘जिम ईलियट’ का धर्मसार सच प्रमाणित हुआ: ‘‘वह मूर्ख नहीं है जो, जिसे वह खो नहीं सकता उसे पाने के लिए, वो दे देता है जिसे वह सुरक्षित नहीं रख सकता।’’ ‘‘यहां हमारा कोई स्थिर रहनेवाला नगर नहीं, बरन हम एक आनेवाले नगर की खोज में हैं’’ (पद 14)।

मैं आपको आमंत्रित करता हूँ कि इसे गायें। और जब आप इन शब्दों पर आते हैं, ‘‘और तेरे नाम में हम जाते हैं,’’ इन्हें वास्तविकता से गायिए, और जाने को तैयार रहिये।