नर और नारी करके ‘उस’ ने परमेश्वर के स्वरूप के अनुसार उनकी सृष्टि की

फिर परमेश्वर ने कहा, ‘‘हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएं; और वे समुद्र की मछलियों, और आकाश के पक्षियों, और घरेलू पशुओं, और सारी पृथ्वी पर, और सब रेंगनेवाले जन्तुओं पर जो पृथ्वी पर रेंगते हैं, अधिकार रखें।’’ तब परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया, अपने ही स्वरूप के अनुसार परमेश्वर ने उसको उत्पन्न किया, नर और नारी करके उस ने मनुष्यों की सृष्टि की। और परमेश्वर ने उनको आशीष दी: और उन से कहा, ‘‘फूलो-फलो, और पृथ्वी में भर जाओ, और उसको अपने वश में कर लो; और समुद्र की मछलियों, तथा आकाश के पक्षियों, और पृथ्वी पर रेंगनेवाले सब जन्तुओं पर अधिकार रखो।’’

आज प्रातः मैं आपके साथ इस मूल-पाठ में सिखायी गई तीन चीजों के बारे में सोचना चाहता हूँ। एक ये है कि परमेश्वर ने मानव जीवधारियों की सृष्टि की। दूसरी ये है कि परमेश्वर ने हमें अपने स्वरूप के अनुसार सृजा। तीसरी ये है कि परमेश्वर ने हमें नर और नारी करके सृजा।

ये सम्भव है कि इन तीन सच्चाईयों पर विश्वास किया जावे और एक मसीही न रहा जावे। जो भी हो, वे सब ठीक वहाँ यहूदी धर्म-ग्रन्थ में सिखाये जाते हैं। इसलिए धर्मग्रन्थ-विश्वासी एक अच्छा यहूदी, इन सच्चाईयों को स्वीकार कर लेगा। लेकिन यद्यपि आप इन तीन सच्चाईयों में विश्वास कर सकते हैं और फिर भी मसीही नहीं हो सकते, ये सभी ख्रीस्तीयता (ईसाइयत) की ओर संकेत करते हैं। वे सभी उस पूर्णता की मांग करते हैं जो काम और मसीह के साथ आती है। वो ही है जिसके बारे में मैं बात करना चाहता हूँ, विशेषकर तीसरे सच के लगाव में — कि हम परमेश्वर के स्वरूप में नर और नारी करके सृजे गए हैं।

1. परमेश्वर ने मानव जीवधारियों की सृष्टि की

आइये हम प्रथम सत्य को लें: कि मानव जीवधारी परमेश्वर द्वारा सृजे गए हैं। मैं सोचता हूँ कि ये एक स्पष्टीकरण की मांग करता है। ‘उस’ ने हमें क्यों सृजा? जब आप कुछ बनाते हैं, आपके पास इसे बनाने का एक कारण होता है। परन्तु संसार, जैसा कि हम इसे जानते हैं, उस प्रश्न का यथोचित उत्तर दे सकता है? पुराना नियम, मनुष्य द्वारा संसार को अपने अधिकार में लाने की बात करता है। ये परमेश्वर की महिमा को प्रदर्शित करने के लिए सृजे जाने की बात करता है (यशायाह 43:7)। ये प्रभु की महिमा के ज्ञान से पृथ्वी के भर जाने की बात करता है।

लेकिन हम क्या देखते हैं? हम एक संसार को देखते हैं जो सृष्टिकर्ता के विरुद्ध बग़ावत में है। हम यहूदी धर्मग्रन्थ को देखते हैं जो सृष्टि की कहानी के साथ नितान्त अपूर्ण एक अन्त पर आती है और महिमा की आशा अब भी आने को है। अतः मात्र विश्वास करना कि परमेश्वर ने मानव जीवधारियों को सृजा था, उस तरह जैसा कि यहूदी धर्मग्रन्थ सिखाते हैं, कि ‘उसने’ सृजा, शेष कहानी बतायी जाने की मांग करता है, यथा, ख्रीस्तीयता या मसीहियत। केवल मसीह में ही सृष्टि का उद्देश्य प्राप्त किया जा सकता है।

2. परमेश्वर ने हमें ‘उसके’ स्वरूप में सृजा

अथवा उदाहरण के लिए दूसरे सच को लीजिये: परमेश्वर ने हमें ‘उसके’ स्वरूप में सृजा। निश्चित ही इसका कुछ सम्बन्ध इसके साथ होना चाहिए कि हम यहाँ क्यों हैं। हमें बनाने में ‘उसके’ उद्देश्य का अवश्य ही इस तथ्य के साथ कुछ अद्भुत संबंध होना चाहिए कि हम मेंढक या छिपकलियाँ या पक्षी या यहाँ तक कि बंदर नहीं हैं। हम परमेश्वर के स्वरूप में मानव जीवधारी हैं, केवल हम और कोई अन्य जन्तु नहीं।

लेकिन इस विस्मयकारी गरिमा को हमने कितना गंदा कर दिया है। क्या हम परमेश्वर के समान हैं? खैर, हाँ और नहीं। हाँ हम परमेश्वर के समान हैं, यहाँ तक कि पापमय और अविश्वासी होने पर भी एक समानता है। हम इसे जानते हैं क्योंकि उत्पत्ति 9:6 में, परमेश्वर ने नूह से कहा, ‘‘जो कोई मनुष्य का लोहू बहाएगा उसका लोहू मनुष्य ही से बहाया जाएगा क्योंकि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप के अनुसार बनाया है।’’ दूसरे शब्दों में, एक ऐसे संसार में भी जहाँ पाप का प्रभुत्व है (हत्या जैसे पापों के साथ), मानव जीवधारी अब भी परमेश्वर के स्वरूप में हैं। वे चूहों और मच्छरों के समान मारे नहीं जा सकते। आप अपना जीवन खो देते हैं यदि आप एक मानव जीवधारी की हत्या करते हैं। (देखिये याकूब 3:9)।

परन्तु क्या हम वो स्वरूप हैं जिसमें होने के लिए परमेश्वर ने हमें बनाया है? क्या ये स्वरूप इतना बिगड़ नहीं गया है कि लगभग पहिचाने जाने से परे है? क्या आप महसूस करते हैं कि आप उस तरह से परमेश्वर के समान हैं जैसा कि आपको होना चाहिए? अतः यहाँ पुनः ये विश्वास कि हम परमेश्वर के स्वरूप में सृजे गए हैं, एक पूर्ति की मांग करता है—इस मामले में एक छुटकारा, एक रूपान्तरण, एक प्रकार का पुनः- सृजन। और ठीक यही है जो ख्रीस्तीयता लाती है। ‘‘क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, बरन परमेश्वर का दान है — और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे। क्योंकि हम उसके बनाए हुए हैं; और मसीह यीशु में भले कामों के लिये सृजे गए … नये मनुष्यत्व को पहिन लो, जो परमेश्वर के अनुसार सत्य की धार्मिकता, और पवित्रता में सृजा गया है (इफिसियों 2:8-10; 4:24)। परमेश्वर ने हमें अपने स्वरूप में सृजा, किन्तु हमने इसे लगभग न पहिचाने जा सकने की दशा तक बिगाड़ दिया और यीशु इसका उत्तर है। ‘वह’ विश्वास के द्वारा आता है, ‘वह’ क्षमा करता है, ‘वह’ शुद्ध करता है, और ‘वह’ एक सुधार-परियोजना आरम्भ करता है जो पवित्रीकरण कहलाती है और ये उस महिमा में समाप्त होगी जो परमेश्वर ने मानव जीवधारियों के लिए सर्वप्रथम स्थान में ठान रखा था। इसलिए चूंकि हम जानते हैं कि हम परमेश्वर के स्वरूप में सृजे गए हैं, हमारे पाप और विकृति एक उत्तर की मांग करते हैं। और यीशु वो उत्तर है।

3. परमेश्वर ने हमें नर व नारी करके सृजा

इन आयतों में तीसरा सच ये है कि परमेश्वर ने हमें नर व नारी सृजा। और ये भी ख्रीस्तीयता की ओर संकेत करता है और मसीह की पूर्ति की मांग करता है। कैसे? कम से कम दो तरह से। एक, विवाह के भेद से आता है। दूसरा, पाप में नर-नारी के सम्बन्धों की ऐतिहासिक कुरूपता से आता है।

विवाह का भेद

विवाह के भेद को लीजिये। उत्पत्ति 2: 24 में ठीक इस विवरण के बाद कि स्त्री कैसे सृजी गई, मूसा (उत्पत्ति का लेखक) कहता है, ‘‘इस कारण पुरुष अपने माता पिता को छोड़कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा और वे एक ही तन बने रहेंगे।’’ अब जब प्रेरित पौलुस इस आयत को इफिसियों 5:32 में उद्धृत करता है, वह कहता है, ‘‘यह भेद तो बड़ा है; पर मैं मसीह और कलीसिया के विषय में कहता हूं।’’ और, इसके साथ उसके सुराग़ के रूप में, वह विवाह के अर्थ को खोलता है: ये कलीसिया के लिए मसीह के प्रेम का एक प्रतीक है जो, अपनी पत्नी के प्रति पति की प्रेममय प्रधानता में, प्रदर्शित होता है; और ये कलीसिया का मसीह के प्रति सहर्ष आधीनता का प्रतीक है जो, पति के प्रति पत्नी के सम्बन्ध में, प्रदर्शित होता है।

वह उत्पत्ति 2: 24 को एक ‘‘भेद’’ कहता है क्योंकि परमेश्वर ने उत्पत्ति में नर और नारी के विवाह के लिए अपने सभी अभिप्रायों को स्पष्टता से प्रगट नहीं किया। पुराना नियम में संकेत और सूचक थे कि विवाह, परमेश्वर और ‘उसके’ लोगों के सम्बन्ध के जैसा था। लेकिन केवल जब मसीह आया तब ही विवाह के भेद का विस्तार में हिज्जे हुआ। यह मसीह का ‘उसके’ लोगों के साथ वाचा के एक चित्र के अर्थ में है, कलीसिया के प्रति ‘उसकी’ वचनबद्धता।

तब, क्या आप देखते हैं, कैसे परमेश्वर द्वारा मनुष्य को नर व नारी करके सृष्टि करना और फिर विवाह को एक ऐसे सम्बन्ध के रूप में विधान करना जिसमें एक नर, माता पिता को छोड़ता है और वाचा वचनबद्धता में अपनी पत्नी से मिल जाता है — कैसे सृष्टि करने का यह कार्य और विवाह का ये विधान, मसीह और ‘उसकी’ कलीसिया के प्रकाषन की मांग करते हैं। वे उस भेद के प्रकाशन के रूप में ख्रीस्तीयता की मांग करते हैं।

अधिकांश लोगों के लिए ये एक बहुत असंगत विचार है, यहाँ तक कि अधिकांश मसीहीगण के लिए भी, क्योंकि विवाह एक सांसारिक प्रथा है, साथ ही एक मसीही विवाह भी। आप इसे सभी संस्कृतियों में पाते हैं, केवल मसीही समाजों मात्र में नहीं। अतः सभी गैर-मसीही विवाह जिन्हें हम जानते हैं, के बारे में हम, मसीह का कलीसिया के साथ सम्बन्ध के भेदपूर्ण प्रतीक के रूप में सोचने को अभिमुख नहीं हैं। किन्तु वे हैं, और विवाह में हमारा नर और नारी के रूप में अस्तित्व ही, मसीह के लिए पुकार करता है कि स्वयँ को कलीसिया के साथ उसके सम्बन्ध में अवगत कराये। विवाह-वाचा के बारे में हमारी समझ को ख्रीस्तीयता पूर्ण करती है।

मुझे आपके लिए यहाँ एक चित्र रंगने दीजिये कि इसे एक ऐसा मोड़ दूं जो आपने पहिले सोचा नहीं होगा। मसीह पुनः इस पृथ्वी पर आ रहे हैं। स्वर्गदूतों ने कहा, जैसा तुमने ‘उसे’ जाते हुए देखा, वैसे ही ‘वह’ पुनः आयेगा। अतः मेरे साथ उस दिन की कल्पना कीजिये। स्वर्ग खुल गए हैं और तुरही बजती है और ‘मनुष्य का पुत्र’ सामर्थ और विशाल महिमा के साथ और दसियों हजारों पवित्र स्वर्गदूतों के साथ, सूर्य के समान चमकता हुआ बादलों पर प्रगट होता है। ‘वह’ उन्हें ‘उसके’ चुने हुओं को चारों कोनों से इकट्ठा करने को भेजता है और जो मसीह में मरे हैं उन्हें मरे हुओं में से जिलाता है। ‘वह’ उन्हें अपनी देह के समान नयी और महिमामय देह देता है, और पलक झपकते ही हम शेष लोगों को बदल देता है कि महिमा के योग्य हो जावें।

मसीह की दुल्हिन (कलीसिया!) की युगों से तैयारी अन्ततः पूर्ण हो गई है और ‘वह’ उसे बांह से पकड़ता है, मानो वे हों, और उसे मेज तक ले जाता है। मेम्ने का विवाह-भोज आ पहुँचा है। ‘वह’ मेज के सिरे पर खड़ा होता है और लाखों सन्तों में चुप्पी छा जाती है। और ‘वह’ कहता है, ‘‘ये, मेरी प्रिय, विवाह का अर्थ था। यही था जिस ओर सबने संकेत किया था। इसी कारण से मैंने तुम्हें नर व नारी करके सृजा और विवाह की वाचा का विधान किया। अब से कोई और विवाह और विवाह में दिया जाना, नहीं होगा, क्योंकि अन्तिम वास्तविकता आ पहुँची है और छाया जा सकती है’’ (देखिये, मरकुस 12: 25; लूका 20: 34-36)।

अब स्मरण कीजिये हम क्या कर रहे हैं: हम देखने का प्रयास कर रहे हैं कि तीसरा सच, परमेश्वर ने हमें उसके स्वरूप में नर व नारी करके सृजा, ख्रीस्तीयता की ओर इसकी पूर्णता के रूप में इंगित करता है। और मैंने कहा कि यह इसे दो तरीके से करता है। पहिला था विवाह के भेद के द्वारा। मानव जीवधारियों की नर व नारी के रूप में सृष्टि, विवाह के विधान के लिए सृष्टि में आवश्यक रूपरेखा उपलब्ध करता है। आप के पास बिना नर व नारी के विवाह हो ही नहीं सकता था। और विवाह का अर्थ, इसके मूलभूत रूप में या पूर्णता में नहीं जाना जाता है जब तक कि हम इसे मसीह का कलीसिया के साथ सम्बन्ध के एक दृष्टान्त के रूप में न देखें।

अतः नर व नारी के रूप में सृष्टि, विवाह की ओर संकेत करती है और विवाह मसीह और कलीसिया की ओर संकेत करता है। और इसलिए ये विश्वास कि परमेश्वर ने हमें ‘उसके’ स्वरूप में नर व नारी करके सृजा, ख्रीस्तीयता के बिना पूर्ण नहीं है — बिना मसीह और कलीसिया के लिए ‘उसके’ उद्धार देने वाले कार्य के।

नर-नारी के सम्बन्धों की ऐतिहासिक कुरूपता

अब, मैंने कहा कि एक अन्य तरीका था कि नर व नारी का परमेश्वर के स्वरूप में सृष्टि, ख्रीस्तीयता की ओर एक आवश्यक पूर्णता के रूप में संकेत करती है, यथा, नर-नारी के सम्बन्धों की ऐतिहासिक कुरूपता में इसकी विकृति से। मुझे समझाने का प्रयास करने दीजिये।

जब पाप ने संसार में प्रवेश किया, नर व नारी के रूप में हमारे सम्बन्धों पर प्रभाव विध्वंसक था। परमेश्वर आदम के पास आता है जब उसने उस वर्जित फल को खा लिया था और पूछता है कि क्या हुआ। उत्पत्ति 3: 12 में आदम कहता है, ‘‘जिस स्त्री को तू ने मेरे संग रहने को दिया है उसी ने उस वृक्ष का फल मुझे दिया, और मैंने खाया।’’ दूसरे शब्दों में, ये उसकी गलती है (अथवा आपकी, उसे मुझे देने के लिए!), अतः यदि किसी को उस फल को खाने के कारण मरना है, ये बेहतर होगा कि वह (स्त्री) हो !

ये वहाँ है सभी घरेलू हिंसाओं का आरम्भ, पत्नी के साथ सभी दुव्र्यवहार, सभी बलात्कार, सभी यौन कलंक, स्त्री का अनादर करने के सभी तरीके, जिसे परमेश्वर ने अपने स्वरूप में सृजा।

उत्पत्ति 3:16, पतित पुरुष व स्त्री पर श्राप की घोषणा इस प्रकार करता है, परमेश्वर ने स्त्री से कहा, ‘‘मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दुःख को बहुत बढ़ाऊंगा; तू पीड़ित होकर बालक उत्पन्न करेगी; और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।’’ दूसरे शब्दों में, पाप का परिणाम और हमारे युग का श्राप है, यौनों के बीच टकराव। ये आयत इसका वर्णन नहीं है कि चीजें किस तरह होना चाहिए। ये वर्णन है कि श्रापित तरीके से किस तरह चीजें होने जा रही हैं जबकि पाप राज्य कर रहा है। शासन करते हुए पुरुषगण और कुटिल स्त्रियाँ। परमेश्वर के स्वरूप में नर व नारी का ये अर्थ नहीं है। ये पाप की कुरूपता है।

अब, ये कुरूपता ख्रीस्तीयता की ओर कैसे संकेत करती है ? ये ख्रीस्तीयता की ओर संकेत करती है क्योंकि ये उस चंगाई की मांग करती है जो पुरुषगण और स्त्रियों के बीच सम्बन्ध में ख्रीस्तीयता ले आती है। यदि परमेश्वर ने हमें अपने स्वरूप में नर और नारी के रूप में सृजा, ये समाविष्ठ करता है व्यक्ति होने की समानता, प्रतिष्ठा की समानता, परस्पर आदर, मित्रभाव, सम्पूरकता, एक एकीकृत नियति। लेकिन संसार के इतिहास में ये सब कहाँ है? ये उस चंगाई में है जो यीशु ले आता है।

यीशु जो चंगाई ले आता है उसके बारे में दो टिप्पणी

यहाँ कहने के लिए इतना अधिक है। किन्तु मुझे केवल दो चीजें व्यक्त करने दीजिये।

3.1. नर व नारी सृजे जाने की नियति

प्रथम, 1 पतरस 3: 7 में पतरस कहता है, कि मसीही पति और पत्नी, ‘‘जीवन के अनुग्रह के संगी वारिस’’ हैं। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि मसीह में पुरुषगण और स्त्रियाँ उसे पुनः प्राप्त करते हैं जो परमेश्वर के स्वरूप में नर व नारी करके सृजे जाने के द्वारा अर्थ था। इसका अर्थ है कि नर और नारी के रूप में एकसाथ उन्हें परमेश्वर की महिमा को प्रगट करना है और संगी-वारिस के रूप में एकसाथ उन्हें परमेश्वर की महिमा का उत्तराधिकारी होना है।

नर व नारी के रूप में परमेश्वर के स्वरूप में सृष्टि (जब आप इसे पाप के साथ-साथ देखते हैं), उस चंगाई की पूर्णता की मांग करती है, जो मसीह के रूपान्तरित करनेवाले कार्य और पापियों के लिए उसके द्वारा मोल लिये गए उत्तराधिकार, के साथ आती है। उस वास्तविकता को कि नर और नारी जीवन के अनुग्रह के संगी-वारिस हैं, मसीह पाप से पुनः प्राप्त करता है।

3.2. नर और नारी के रूप में अविवाहित रहने का अर्थ

जिस तरह से मसीह चीजों को उलट देता और हमारे युद्ध की कुरूपता पर जय पाता है और परमेश्वर के स्वरूप में नर व नारी सृजे जाने की नियति को परिपूर्ण करता है, इसके बारे में दूसरी बात जो कही जानी है, वो 1 कुरिन्थियों 7 में पायी जाती है। वहाँ पौलुस उस समय के लिए कुछ लगभग अविश्वासनीय मूलसिद्धान्त कहता है: ‘‘मैं अविवाहितों और विधवाओं के विषय में कहता हूं, कि उन के लिये ऐसा ही रहना अच्छा है, जैसा मैं हूं … अविवाहित पुरुष प्रभु की बातों की चिन्ता में रहता है, कि प्रभु को क्योंकर प्रसन्न रखे … अविवाहिता प्रभु की चिन्ता में रहती है, कि वह देह और आत्मा दोनों में पवित्र हो … यह बात … कहता हूं … तुम्हें फंसाने के लिये नहीं … बरन … तुम एक चित्त होकर प्रभु की सेवा में लगे रहो’’ (1कुरिन्थियों 7: 8, 32-35)।

क्या आप देखते हैं कि इसका क्या तात्पर्य है? इसका आशय है कि परमेश्वर के स्वरूप में सृजे गए नर व नारी के लिए वो चंगाई जो यीशु ले आता है, विवाह पर निर्भर नहीं है। वास्तव में एक अविवाहित के रूप में पौलुस के अनुभव (और एक अविवाहित पुरुष के रूप में यीशु का नमूना) ने उसे सिखाया कि प्रभु के प्रति एक प्रकार की स्थिर-मना भक्ति है जो अविवाहित पुरुष या स्त्री के लिए सम्भव है, जो कि सामान्यतः विवाहित सन्तों का हिस्सा नहीं है।

इसे कहने का एक अन्य तरीका ये है: विवाह इस युग के लिए एक अस्थायी प्रथा है, जब तक कि मृतकों का पुनरुत्थान न हो। इसके अर्थ का मूलतत्व और उद्देश्य, कलीसिया के प्रति मसीह के सम्बन्ध को प्रदर्शित करना है। लेकिन जब वास्तविकता आती है, प्रदर्शन, जैसा कि हम जानते हैं, ये एक ओर कर दिया जायेगा। और आने वाले युग में न विवाह होगा और न विवाह में दिया जाना। और वे जो अविवाहित और प्रभु के प्रति अर्पित रहे हैं, वे जीवन के अनुग्रह के पूर्ण संगी-वारिस के रूप में मेम्ने के विवाह-भोज में बैठेंगे। और प्रभु के प्रति उनकी भक्ति और उनके बलिदानों के अनुसार वे स्नेहों और सम्बन्धों और सभी कल्पना से परे आनन्दों के साथ, पुरस्कृत किये जावेंगे।

सारांश

अतः, हमने जो देखा है, मैं उसका सार प्रस्तुत कर दूँ।

  1. परमेश्वर ने मानव-जीवधारियों को सृजा। और जैसे ही पुराना नियम बन्द होता है, ये विस्मयकारी तथ्य, शेष कहानी, ख्रीस्तीयता की मांग करता है, ताकि जो परमेश्वर करने जा रहा था उसको सार्थक करे। सृष्टि करने में ‘उसके’ उद्देश्य, बिना मसीह के कार्य के अपूर्ण हैं।

  2. परमेश्वर ने हमें अपने स्वरूप में सृजा। लेकिन हमने उस स्वरूप को इतनी बुरी तरह बिगाड़ दिया कि ये कठिनाई से पहचाने जाने लायक है। इसलिए ये सच्चाई ख्रीस्तीयता की पूर्णता की मांग करती है, क्योंकि जो जो यीशु करता है वो ये कि जो खो गया था उसे पुनः प्राप्त करे। ये ‘‘मसीह में नयी सृष्टि’’ कहलाता है। स्वरूप को धार्मिकता और पवित्रता में पु्र्स्थापित किया जाता है।

  3. परमेश्वर ने हमें अपने स्वरूप में नर और नारी करके सृजा। और ये भी ख्रीस्तीयता की सच्चाई में पूर्णता की मांग करता है। कोई भी व्यक्ति पूरी तरह से समझ नहीं सकता कि विवाह में नर और नारी होने का क्या अर्थ है जब तक कि वे ये न देखें कि विवाह का तात्पर्य मसीह और कलीसिया को चित्रित करना है। और परमेश्वर के स्वरूप में नर व नारी के रूप में सृजे जाने की सच्ची नियति कोई नहीं जान सकता जब तक कि वे ये न जानें कि नर व नारी, जीवन के अनुग्रह के संगी-वारिस हैं। और अन्त में, कोई भी, परमेश्वर के स्वरूप में नर व नारी के रूप में अविवाहित होने का अर्थ पूर्णतः नहीं समझ सकता जब तक कि वे मसीह से न सीखें कि आने वाले युग में कोई विवाह नहीं होगा, और इसलिए परमेश्वर के स्वरूप में नर व नारी होने की महिमामय नियति, विवाह पर निर्भर नहीं है, अपितु प्रभु के प्रति भक्ति पर।

अतः इन सच्चाईयों पर टिके रहिये: परमेश्वर ने आपको सृजा; ‘उसने’ आपको अपने स्वरूप में सृजा; और ‘उसने’ आपको नर व नारी सृजा ताकि आप प्रभु के प्रति पूर्णरूपेण और मूलतः और अद्वितीय रूप से अर्पित रहें।