परमेश्वर की इच्छा क्या है और हम इसे कैसे जानें ?

इसलिये हे भाइयो, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। 2 और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो।

रोमियों 12: 1-2 का लक्ष्य है कि सम्पूर्ण जीवन ‘‘आत्मिक आराधना’’ बन जावे। पद 1: ‘‘अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा (सही अनुवाद- आराधना) है। परमेश्वर की दृष्टि में सभी मानव जिन्दगियों का लक्ष्य ये है कि मसीह को उतना ही मूल्यवान् दिखाया जावे जितना कि ‘वह’ है। आराधना का अर्थ है, हमारे मन और हृदयों और शरीरों को, परमेश्वर के मूल्य को, और जो कुछ ‘वह’ यीशु में हमारे लिए है, अभिव्यक्त करने के लिए उपयोग करना। जीने का एक तरीका है — प्रेम करने का एक तरीका — जो यह करता है। आपकी नौकरी/धंधे को करने का एक तरीका है जो परमेश्वर के सच्चे मूल्य को अभिव्यक्त करता है। यदि आप इसे ढूंढ नहीं सकते, तो इसका अर्थ हो सकता है कि आपको नौकरी या पेशा बदलना चाहिए। अथवा इसका अर्थ हो सकता है कि पद 2 उस अंश तक घटित नहीं हो रहा है, जितना इसे होना चाहिए।

पद 2, पौलुस का उत्तर है कि कैसे हम सम्पूर्ण जीवन को आराधना में बदल दें। हमें रूपान्तरित होना चाहिए। हमें रूपान्तरित होना चाहिए। मात्र हमारा बाहरी व्यवहार नहीं, अपितु हम जिस तरह से अनुभूति करते और सोचते हैं—हमारे मन। पद 2: ‘‘तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए।’’

आप क्या हैं, बन जाइये

वे जो मसीह यीशु में विश्वास करते हैं, मसीह में लोहू-से-खरीदे-गए नये जीव बन चुके हैं। ‘‘यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है’’ (2 कुरिन्थियों 5:17)। किन्तु अब हमें वो बन जाना चाहिए जो हम हैं। ‘‘पुराना खमीर निकाल कर, अपने आप को शुद्ध करो: कि नया गूंधा हुआ आटा बन जाओ; ताकि तुम अखमीरी हो’’ (1 कुरिन्थियों 5: 7)।

‘‘तुम ने … नए मनुष्यत्व को पहिन लिया है जो अपने सृजनहार के स्वरूप के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के लिये नया बनता जाता है’’ (कुलुस्सियों 3:10)। तुम्हें मसीह में नया बना दिया गया है; और अब तुम दिन-प्रतिदिन नया बनते जाते हो। यही है जिस पर हमने विगत सप्ताह ध्यान केन्द्रित किया था।

अब हम पद 2 के अन्तिम भाग पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, यथा, नयी हो गई बुद्धि का लक्ष्य: ‘‘इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, {अब यहाँ लक्ष्य आता है} जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो।’’ अतः आज का हमारा केन्द्र है, शब्द ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ का अर्थ, और हम इसे कैसे जानें।

परमेश्वर की दो मनसाएं/इच्छाएं

बाइबिल में ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ शब्द के लिए दो स्पष्ट और बहुत भिन्न अर्थ हैं। हमें उन्हें जानना और ये निर्णय लेना कि यहाँ रोमियों 12:2 में कौन सा उपयोग किया जा रहा है, आवश्यक है। वास्तव में, ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ के इन दो अर्थों के बीच अन्तर को जानना, सम्पूर्ण बाइबिल में सबसे बड़ी और सर्वाधिक व्याकुल करनेवाली चीजों में से एक, की समझ के लिए महत्वपूर्ण है, यथा, यह कि परमेश्वर सभी चीजों के ऊपर प्रभुसत्ता-सम्पन्न है और फिर भी कई चीजों को नापसन्द करता (या निर-अनुमोदन करता) है। जिसका अर्थ है कि परमेश्वर कुछ को नापसन्द करता है जिसे ‘वह’ घटित होने के लिए निर्धारित करता है। अर्थात्, ‘वह’ कुछ चीजों का निषेध करता है, जिन्हें ‘वह’ होने देता है। और ‘वह’ कुछ चीजों की आज्ञा देता है, जिन्हें ‘वह’ बाधित करता है। अथवा, इसे सर्वाधिक विरोधाभासी रूप में रखने के लिए: परमेश्वर कुछ घटनाओं की एक भाव में इच्छा करता है जिनकी ‘वह’ दूसरे अर्थ में इच्छा नहीं करता।

1. परमेश्वर की राजाज्ञा-की-इच्छा, अथवा प्रभुसत्ताक-इच्छा

आइये हम धर्मशास्त्र के परिच्छेदों को देखें जो हमें इस तरह सोचने को बाध्य करते हैं। पहिले उन परिच्छेदों पर विचार करें जो ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ को, सब कुछ जो घटित होता है उस पर प्रभुसत्ताक नियंत्रण के रूप में, वर्णन करते हैं। एक सर्वथा स्पष्टतम् है, जिस तरह यीशु ने गतसमनी में परमेश्वर की इच्छा के बारे में कहा, जब ‘वह’ प्रार्थना कर रहा था। मत्ती 26:39 में ‘उसने’ कहा, ‘‘हे मेरे पिता, यदि हो सके, तो यह कटोरा मुझ से टल जाए; तौभी जैसा मैं चाहता हूं वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।’’ इस आयत में परमेश्वर की इच्छा क्या संकेत करती है? यह परमेश्वर की प्रभुसत्ताक योजना की ओर संकेत करती है जो आने वाले घण्टों में घटित होवेगी। आप याद कीजिये कि प्रेरित 4: 27-28 इसे कैसे कहता है: ‘‘क्योंकि सचमुच तेरे पवित्र सेवक यीशु के विरोध में, जिसे तू ने अभिषेक किया, हेरोदेस और पुन्तियुस पीलातुस भी अन्य जातियों और इस्राएलियों के साथ इस नगर में इकट्ठे हुए कि जो कुछ पहिले से तेरी सामर्थ (तेरे हाथ) और मति से ठहरा था वहीं करें।’’ अतः ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ यह थी कि यीशु मरे। ये ‘उसकी’ योजना थी, ‘उसकी’ राजाज्ञा। इसे बदला नहीं जाना था और यीशु ने सिर झुकाया और कहा, ‘‘ये है मेरा निवेदन, परन्तु करने के लिए जो सर्वोत्तम है, तू कर।’’ वो है परमेश्वर की प्रभुसत्ताक इच्छा।

और यहाँ बहुत महत्वपूर्ण बिन्दु मत छोड़ दीजिये कि यह मनुष्य के पापों को सम्मिलित करता है। हेरोदेस, पीलातुस, सैनिक, यहूदी अगुवे — उन सभों ने, परमेश्वर की इच्छा को परिपूर्ण करने में कि ‘उसका’ पुत्र क्रूसित किया जावे, पाप किया (यशायाह 53:10)। अतः इस बारे में स्पष्ट हो जाइये: परमेश्वर कुछ ऐसा घटित होने की इच्छा करता है, जिससे ‘वह’ घृणा करता है।

पहिला पतरस से यहाँ एक उदाहरण है। 1 पतरस 3:17 में पतरस लिखता है, ‘‘यदि परमेश्वर की यही इच्छा हो, कि तुम भलाई करने के कारण दुःख उठाओ, तो यह बुराई करने के कारण दुःख उठाने से उत्तम है।’’ दूसरे शब्दों में, ये परमेश्वर की इच्छा हो सकती है कि मसीहीगण भलाई करने के कारण दुःख उठायें। ‘उसके’ मन में सताव है। लेकिन उन मसीहियों का सताव जो इसकी पात्रता नहीं रखते, पाप है। अतः पुनः, कभी-कभी परमेश्वर इच्छा करता है कि ऐसी घटनाएँ घटित हों जिनमें पाप सम्मिलित है। ‘‘यदि परमेश्वर की यही इच्छा हो, कि तुम भलाई करने के कारण दुःख उठाओ।’’

पौलुस इस सच्चाई का एक अतिरंजित सारांश बयान इफिसियों 1:11 में देता है, ‘‘उसी {मसीह} में जिस में हम भी उसी की मनसा से जो अपनी इच्छा के मत के अनुसार सब कुछ करता है, पहिले से ठहराए जाकर मीरास बने।’’ परमेश्वर की इच्छा, जो कुछ भी घटित होता है उसका, परमेश्वर का प्रभुसत्ताक अभिशासन, है। और बाइबिल में ऐसे अनेकों अन्य परिच्छेद हैं जो सिखाते हैं कि विश्व के ऊपर परमेश्वर का विधान, प्रकृति के सबसे छोटे विवरण तक और मानव निर्णयों तक विस्तारित होता है। हमारे पिता, जो स्वर्ग में है, के बिना एक गौरैया भूमि पर नहीं गिरती (मत्ती 10:29)। ‘‘चिट्ठी डाली जाती तो है, परन्तु उसका निकलना यहोवा ही की ओर से होता है’’ (नीतिवचन 16:33)। ‘‘मन की युक्ति मनुष्य के वश में रहती है, परन्तु मुंह से कहना यहोवा की ओर से होता है’’ (नीतिवचन 16:1)। ‘‘राजा का मन नालियों के जल की नाईं यहोवा के हाथ में रहता है, जिधर वह चाहता उधर उसको फेर देता है’’ (नीतिवचन 21:1)।

परमेश्वर की इच्छा का यह पहिला अर्थ है: ये है सभी चीजों पर परमेश्वर का प्रभुसत्ताक नियंत्रण। हम इसे ‘उसकी’ ‘‘प्रभु -सत्ताक इच्छा’’ कहेंगे अथवा ‘उसकी’ ‘‘राजाज्ञा की इच्छा।’’ ये तोड़ी नहीं जा सकती। ये सदा घटित होती है। ‘‘वह स्वर्ग की सेना और पृथ्वी के रहनेवालों के बीच अपनी ही इच्छा के अनुसार काम करता है; और कोई उसको रोककर उस से नहीं कह सकता है, ‘तू ने यह क्या किया है?’’’ (दान्यियेल 4:35)।

2. परमेश्वर की, आदेश की इच्छा

अब, बाइबिल में ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ के लिए अन्य अर्थ है, वो जिसे हम ‘उसकी’ ‘‘आदेश की इच्छा’’ कह सकते हैं। जो ‘वह’ हमें करने का आदेश देता है, ‘उसकी’ इच्छा है। ये परमेश्वर की वो इच्छा है जिसकी हम अवज्ञा कर सकते और असफल हो सकते हैं। राजाज्ञा-की-इच्छा, हम करते हैं चाहे हम इस में विश्वास करते हैं अथवा नहीं। आदेश-की-इच्छा पूरी करने में हम असफल हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, यीशु ने कहा, ‘‘जो मुझ से, ‘हे प्रभु, हे प्रभु’ कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है’’ (मत्ती 7: 21)। सभी ‘उसके’ पिता की इच्छा के अनुसार नहीं करते। ‘वह’ ऐसा कहता है। ‘‘हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा।’’ क्यों? क्योंकि सभी परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं करते।

1 थिस्सलुनीकियों 4:3 में पौलुस कहता है, ‘‘परमेश्वर की इच्छा यह है, कि तुम पवित्र बनो: अर्थात् व्यभिचार से बचे रहो।’’ यहाँ हमारे पास, परमेश्वर जो हमें आदेश देता है उसका एक विशिष्ट उदाहरण है: पवित्रता, पवित्रीकरण, यौन-शुद्धता। ये ‘उसकी’ आदेश-की-इच्छा है। किन्तु, ओह, कितने लोग आज्ञा पालन नहीं करते।

फिर 1 थिस्सलुनीकियों 5:18 में पौलुस कहता है, ‘‘हर बात में धन्यवाद करो: क्योंकि तुम्हारे लिये मसीह यीशु में परमेश्वर की यही इच्छा है।’’ वहाँ पुनः ‘उसकी’ आदेश-की-इच्छा का एक विशिष्ट पहलू है: सभी परिस्थितियों में धन्यवाद दो। किन्तु बहुतेरे परमेश्वर की इस इच्छा को नहीं करते।

एक और उदाहरण: ‘‘और संसार और उसकी अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा’’ (1 यूहन्ना 2:17)। सभी सर्वदा बने नहीं रहते। कुछ रहते हैं। कुछ नहीं रहते। अन्तर? कुछ परमेश्वर की इच्छा को करते हैं। कुछ नहीं करते। इस अर्थ में, परमेश्वर की इच्छा, सदैव घटित नहीं होती।

अतः मैं इन से और बाइबिल के अन्य अनेकों परिच्छेदों से ये निष्कर्ष निकालता हूँ कि परमेश्वर की इच्छा के बारे में बात करने के दो तरीके हैं। दोनों सच हैं, और दोनों समझने के लिए और उसमें विश्वास करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। एक को हम परमेश्वर की राजाज्ञा की इच्छा (या ‘उसकी’ प्रभुसत्ताक इच्छा) कह सकते हैं और दूसरी को हम परमेश्वर की आदेश की इच्छा कह सकते हैं। ‘उसकी’ राजाज्ञा की इच्छा सदैव घटित होती है चाहे हम इसमें विश्वास करें या न करें। ‘उसकी’ आदेश की इच्छा तोड़ी जा सकती है, और हर दिन तोड़ी जा रही है।

इन सच्चाईयों की बहुमूल्यता

इसके पूर्व कि मैं इसे रोमियों 12: 2 से सम्बद्ध करूँ, मुझे इस पर टिप्पणी करने दीजिये कि ये दो सच्चाईयाँ कितनी बहुमूल्य हैं। दोनों एक गहिरी आवश्यकता के अनुरूप होती हैं जो हम सभों को होती है, जब हम गहराई से चोट खाते अथवा बड़ी हानि का अनुभव करते हैं। एक ओर, हमें इस आश्वासन् की आवश्यकता होती है कि परमेश्वर नियंत्रण रखे है और इसलिए मेरे सारे कष्ट और हानि को मिलाकर मेरे लिए और उन सब के लिए जो ‘उससे’ प्रेम रखते हंै, भलाई उत्पन्न कर सकता है। दूसरी ओर, हमें जानने की आवश्यकता है कि परमेश्वर हमारे साथ सम-अनुभूति रखता है और पाप या कष्ट में या उनसे प्रसन्न नहीं होता। ये दो आवश्यकताएँ, परमेश्वर की राजाज्ञा-की-इच्छा और ‘उसकी’ आदेश-की-इच्छा के अनुरूप हैं।

उदाहरण के लिए, यदि एक बच्चे के रूप में आपसे बुरी तरह दुव्र्यवहार किया था, और कोई आपसे पूछता है, ‘‘क्या आप सोचते हो कि वो परमेश्वर की इच्छा थी?’’ आपके पास अब इसमें से कुछ बाइबिल-शास्त्रीय भाव बनाने का तरीका है, और ऐसा उत्तर देने का, जो बाइबिल का खण्डन न करे। आप कह सकते हैं, ‘‘नहीं यह परमेश्वर की इच्छा नहीं थी; क्योंकि ‘वह’ आज्ञा देता है कि मनुष्यो, दुव्र्यवहार करनेवाले न बनो, वरन् एक-दूसरे से प्रेम रखो। अनुचित ने ‘उसकी’ आज्ञा तोड़ी और इसलिए ‘उसके’ हृदय को क्रोध और दुःख से भर दिया (मरकुस 3:5)। लेकिन, अन्य अर्थ में, हाँ, ये परमेश्वर की इच्छा थी (‘उसकी प्रभुसत्ताक इच्छा), क्योंकि सैकड़ों तरीके हैं जिनसे ‘वह’ इसे रोक सकता था। किन्तु कारणों से, जिन्हें मैं अब भी पूरी तरह नहीं समझता, ‘उसने’ नहीं रोका।’’

और इन दो इच्छाओं के अनुरूप दो चीजें हैं जिनकी आपको इस स्थिति में आवश्यकता है: एक है, ‘एक परमेश्वर’ जो पर्याप्त सामथ्र्यवान् और प्रभुसत्ता-सम्पन्न है कि इसे भलाई में बदल दे; और अन्य है ‘एक परमेश्वर’ जो आपके साथ सम- अनुभूति रखने के योग्य हो। एक ओर, मसीह एक प्रभुसत्ता-सम्पन्न सर्वोच्च राजा है, और कुछ भी ‘उसकी’ इच्छा से हटकर नहीं होता (मत्ती 28:18)। दूसरी ओर, मसीह एक दयामय महायाजक है और हमारी दुर्बलताओं और कष्ट में सहानुभूति रखता है (इब्रानियों 4:15)। जब ‘उसकी’ इच्छा है, ‘पवित्र आत्मा’ हम पर व हमारे पापों पर जय पाता है (यूहन्ना 1:13; रोमियों 9: 15-16), और स्वयँ को बुझाये जाना और शोकित किया जाना और क्रोधित किया जाना, देता है, जब ‘उसकी’ इच्छा हो (इफिसियों 4:30; 1 थिस्सलुनीकियों 5:19)। ‘उसकी’ प्रभुसत्ताक इच्छा अजेय है, और ‘उसकी’ आदेश की इच्छा को दुःखदपूर्ण रूप से तोड़ा जा सकता है।

हमें इन दोनों सच्चाईयों की आवश्यकता है — परमेश्वर की इच्छा की इन दोनों समझ की — ने केवल बाइबिल में से अर्थपूर्ण निकालने के लिए, अपितु दुःख उठाते समय परमेश्वर को दृढ़ता से थामे रहने के लिए।

रोमियों 12: 2 में किस इच्छा का उल्लेख है ?

अब, रोमियों 12: 2 में इन में से कौन व्यक्त की गई है, ‘‘इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो।’’ उत्तर निश्चित रूप से ये है कि पौलुस परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ का उल्लेख कर रहा है। मैं कम से कम दो कारणों से यह कहता हूँ। एक यह कि परमेश्वर का हमारे लिए ये ध्येय नहीं है कि समय से पूर्व ‘उसकी’ अधिकांश ‘प्रभुसत्ताक इच्छा’ को जानें। ‘‘गुप्त बातें हमारे परमेश्वर यहोवा के वश में हैं; परन्तु जो प्रगट की गई हैं वे सदा के लिए हमारे और हमारे वंश के वश में रहेंगी’’ (व्यव.वि. 29:29)। यदि आप परमेश्वर की ‘राजाज्ञा की इच्छा’ के भविष्य के विवरण जानना चाहते हैं, तो आप एक नयी बुद्धि नहीं चाहते, आप एक ‘क्रिस्टल-बॉल’ (भविष्यकथन हेतु प्रयुक्त काँच या स्फटिक का गोला) चाहते हैं। इसे रूपान्तरण और आज्ञाकारिता नहीं कहा जाता; इसे शकुन-विद्या, ज्योतिष-करना कहते हैं।

अन्य कारण कि मैं कहता हूँ कि रोमियों 12: 2 में परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ है और ‘उसकी’ ‘राजाज्ञा की इच्छा’ नहीं, ये है कि वाक्यांश ‘‘अनुभव से मालूम करते रहो,’’ का आशय ये है कि हमें परमेश्वर की इच्छा का समर्थन करना चाहिए और फिर आज्ञाकारितापूर्ण ढंग से इसे करना चाहिए। परन्तु वास्तव में हमें पाप का समर्थन या इसे करना नहीं चाहिए, भले ही यह परमेश्वर की ‘प्रभुसत्ताक इच्छा’ का हिस्सा क्यों न हो। रोमियों 12: 2 में पौलुस के अर्थ का, लगभग सटीक रूप से इब्रानियों 5: 14 में भावानुवाद किया गया है, जो कहता है, ‘‘अन्न सयानों के लिए है, जिन के ज्ञानेन्द्रिय अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्के हो गए हैं।’’ (एक अन्य भावानुवाद फिलिप्पियों 1: 9-11 में देखिये।) इस आयत का यही लक्ष्य है: परमेश्वर की गुप्त इच्छा का पता लगाना नहीं, जो करने की योजना ‘वह’ करता है, अपितु परमेश्वर की प्रगट की गई इच्छा को मालूम करना, जो हमें करना अवश्य है।

परमेश्वर की प्रगटित इच्छा को जानने और करने के तीन चरण

परमेश्वर की प्रगटित इच्छा को जानने और करने के तीन चरण हैं, अर्थात्, ‘उसकी’ ‘आदेश की इच्छा’; और वे सभी, ‘पवित्र- आत्मा’ द्वारा दी गई समझ के साथ, बुद्धि के नये हो जाने की मांग करते हैं, जिसके बारे में हमने पिछली बार चर्चा की थी।

चरण एक

प्रथम, परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ अन्तिम, निर्णायक अधिकार के साथ केवल बाइबिल में प्रगट की जाती है। और हमें नयी की गई बुद्धि की आवश्यकता है कि पवित्र-शास्त्र में परमेश्वर जो आज्ञा देता है उसे समझ सकें और गले लगा सकें। बिना नयी की गई बुद्धि के, हम पवित्र-शास्त्र को तोड़-मरोड़ करेंगे कि स्वयँ-का-इन्कार करने, और प्रेम और शुद्धता, और केवल मसीह में परम सन्तुष्टि की उनकी मूल-भूत आज्ञाओं को अनदेखा करें। परमेश्वर की अधिकारपूर्ण ‘आदेश की इच्छा’ केवल बाइबिल में पायी जाती है। पौलुस कहता है कि पवित्रशास्त्र प्रेरणा से लिखे गए और मसीहियों को ‘‘सिद्ध, हर एक भले कामों के लिए तत्पर’’ (2 तीमुथियुस 3: 16) बनाते हैं। मात्र कुछ भले काम नहीं। ‘‘हर एक भले काम।’’ ओह, मसीहियों को परमेश्वर के लिखित ‘वचन’ पर मनन करते हुए कितनी ऊर्जा और समय और उपासना खर्च करना चाहिए।

चरण दो

परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ का दूसरा चरण है, उन नयी परिस्थितियों में बाइबिलशास्त्रीय सच्चाईयों का हमारा अनुप्रयोग, जो बाइबिल में स्पष्टतः सम्बोधित की गई हों या नहीं। बाइबिल आपको नहीं बतलाती कि किस व्यक्ति से विवाह करें, या कौन सी कार चलावें, या एक घर खरीदें या नहीं, आप अपनी छुट्टियाँ कहाँ बितायें, सैल-फोन का कौन सा प्लान खरीदें, या कौन से मार्का वाले संतरे का रस पियें। अथवा वे अन्य हजार चुनाव जो आपको करने होते हैं।

जो आवश्यक है वो ये कि हमारे पास नवीनीकृत बुद्धि हो, जो बाइबिल में परमेश्वर की प्रगट की गई इच्छा के द्वारा इस प्रकार से आकार पायी हुई और इस तरह परिचालित हो, कि हम मसीह के मन के द्वारा सभी संगत कारकों को देखें और मूल्यांकन करें, और ये मालूम करें कि परमेश्वर हमें क्या करने के लिए बुला रहा है। निरन्तर परमेश्वर की ये कहती हुई आवाज़ को सुनने का प्रयास करना कि ये करो व वो करो, से यह सर्वथा भिन्न है। लोग, जो आवाजें सुनने के द्वारा अपनी जिन्दगियों को जीने का प्रयास करते हैं, रोमियों 12:2 के साथ समन्वय में नहीं हैं।

एक नवीनीकृत बुद्धि के लिए, जो ये समझे कि परमेश्वर के ‘वचन’ को कैसे लागू करना है, प्रार्थना करना और मेहनत करना, एक ओर, और परमेश्वर से पूछने की आदत कि क्या करें इसके लिए परमेश्वर आपको नया प्रकाशन दे, दूसरी ओर; इन दोनों के बीच एक पूरी दुनिया का अन्तर है। शकुन-विद्या के लिए रूपान्तरण की आवश्यकता नहीं होती। परमेश्वर का लक्ष्य है एक नया मन, सोचने और आंकने का एक नया तरीका, मात्र नयी सूचना नहीं। ‘उसका’ लक्ष्य है कि हम बदल जायें, पवित्र किये जायें, उसके प्रकाशित ‘वचन’ के द्वारा स्वतंत्र किये जायें (यूहन्ना 8: 32; 17:17)। अतः परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ का दूसरा चरण है, एक नवीनीकृत मन के द्वारा जीवन की नयी परिस्थितियों में पवित्रशास्त्र के अनुप्रयोग की समझ रखना।

चरण तीन

अन्त में, परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ का तीसरा चरण, जीने का बहुत बड़ा हिस्सा है, जहाँ, इससे पूर्व कि हम कार्य करें, सचेतन रूप से कुछ पूर्व-विचारित नहीं होता। मैं ये कहने का जोखि़म उठाता हूँ, कि आपके व्यवहार का अच्छा-भला 90 प्रतिशत, आप पहले से विचार नहीं करते। अर्थात्, आपके अधिकांश विचार, भाव, और कियाएँ स्व-इच्छित होते हैं। वे, उस से, जो भीतर है, मात्र बाहर छलकते हैं। यीशु ने कहा, ‘‘जो मन में भरा है, वही मुंह पर आता है। भला मनुष्य मन के भले भण्डार से भली बातें निकालता है; और बुरा मनुष्य बुरे भण्डार से बुरी बातें निकालता है। और मैं तुम से कहता हूं, कि जो जो निकम्मी बातें मनुष्य कहेंगे, न्याय के दिन हर एक बात का लेखा देंगे’’ (मत्ती 12: 34-36)।

मैं इस भाग को क्यों परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ कहता हूँ? एक कारण से। क्योंकि परमेश्वर इस तरह की चीजों की आज्ञा देता है: क्रोध मत करो। घमण्डी न बनो। लालच मत करो। चिन्ता मत करो। ईष्र्या मत करो। डाह न करो। और इनमें से कोई भी क्रिया पूर्व विचारित नहीं हैं। क्रोध, घमण्ड, लोभ, चिन्ता, ईष्र्या, डाह — ये सब हृदय से बिना सचेतन विचार के या ध्येय के निकल आते हैं। और हम उनके कारण दोषी हैं। वे परमेश्वर की आज्ञा को तोड़ते हैं।

इसलिए क्या यह स्पष्ट नहीं है कि मसीही जीवन का एक बड़ा कार्य है: तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम बदलते जाओ। हमें नये हृदयों और नये मनों की आवश्यकता है। पेड़ को अच्छा बनाइये और फल अच्छा होगा (मत्ती 12:33)। ये बड़ी चुनौती है। वो ही है जिसके लिए परमेश्वर आपको बुलाता है। आप इसे अपने बल पर नहीं कर सकते। आपको मसीह की आवश्यकता है जो आपके पापों के लिए मर गया। और आपको ‘पवित्र आत्मा’ की आवश्यकता है कि मसीह को ऊँचा- करनेवाले-सत्य में आपकी अगुवाई करे और आप में सत्य-आलिंगन करनेवाली नम्रता उत्पन्न करे।

अपने आप को इसे सौंप दीजिये। स्वयँ को परमेश्वर के लिखे हुए ‘वचन’ में डुबो दीजिये; अपने मन को इस से संतृप्त कर लीजिये। और प्रार्थना कीजिये कि ‘मसीह का आत्मा’ आपको ऐसा नया बना दे कि जो बाहर छलके वो भला, भावता और सिद्ध होवे — परमेश्वर की इच्छा होवे।