प्रभु - भोज का हम क्यों व कैसे उत्सव मनाते हैं

परन्तु यह आज्ञा देते हुए, मैं तुम्हें नहीं सराहता, इसलिये कि तुम्हारे इकट्ठे होने से भलाई नहीं, परन्तु हानि होती है। 18 क्योंकि पहले तो मैं यह सुनता हूं, कि जब तुम कलीसिया में इकट्ठे होते हो, तो तुम में फूट होती है और मैं कुछ कुछ प्रतीति भी करता हूं। 19 क्योंकि मतभेद भी तुम में अवश्य होंगे, इसलिये कि जो लोग तुम में खरे निकले हैं, वे प्रगट हो जाएं। 20 सो तुम जो एक जगह में इकट्ठे होते हो तो यह प्रभु भोज खाने के लिये नहीं। 21 क्योंकि खाने के समय एक दूसरे से पहले अपना भोज खा लेता है, सो कोई तो भूखा रहता है, और कोई मतवाला हो जाता है। 22 क्या खाने पीने के लिये तुम्हारे घर नहीं ? या परमेश्वर की कलीसिया को तुच्छ जानते हो, और जिन के पास नहीं है उन्हें लज्जित करते हो? मैं तुम से क्या कहूं ? क्या इस बात में तुम्हारी प्रशंसा करूं ? मैं प्रशंसा नहीं करता। 23 क्योंकि यह बात मुझे प्रभु से पहुंची, और मैं ने तुम्हें भी पहुँचा दी; कि प्रभु यीशु ने जिस रात वह पकड़वाया गया रोटी ली। 24 और धन्यवाद करके उसे तोड़ी, और कहा; कि ‘‘यह मेरी देह है, जो तुम्हारे लिये है: मेरे स्मरण के लिये यही किया करो ।” 25 इसी रीति से उस ने बियारी के पीछे कटोरा भी लिया, और कहा; ‘‘यह कटोरा मेरे लहू में नई वाचा है: जब कभी पीओ, तो मेरे स्मरण के लिये यही किया करो ।” 26 क्योंकि जब कभी तुम यह रोटी खाते, और इस कटोरे में से पीते हो, तो प्रभु की मृत्यु को जब तक वह न आए, प्रचार करते हो। 27 इसलिये जो कोई अनुचित रीति से प्रभु की रोटी खाए, या उसके कटोरे में से पीए, वह प्रभु की देह और लहू का अपराधी ठहरेगा। 28 इसलिये मनुष्य अपने आप को जांच ले और इसी रीति से इस रोटी में से खाए, और इस कटोरे में से पीए। 29 क्योंकि जो खाते-पीते समय प्रभु की देह को न पहचाने, वह इस खाने और पीने से अपने ऊपर दण्ड लाता है। 30 इसी कारण तुम में बहुतेरे निर्बल और रोगी हैं, और बहुत से सो भी गए। 31 यदि हम अपने आप को जाँचते, तो दण्ड न पाते। 32 परन्तु प्रभु हमें दण्ड देकर हमारी ताड़ना करता है इसलिये कि हम संसार के साथ दोषी न ठहरें। 33 इसलिये, हे मेरे भाइयो, जब तुम खाने के लिये इकट्ठे होते हो, तो एक दूसरे के लिये ठहरा करो—34 यदि कोई भूखा हो, तो अपने घर में खा ले—जिस से तुम्हारा इकट्ठा होना दण्ड का कारण न हो: और शॆष बातों को मैं आकर ठीक कर दूँगा।।

इसके पूर्व कि हम आगामी सप्ताह (यदि प्रभु चाहे तो) रोमियों की पत्री में लौटें, मैंने सोचा कि हमारे लिए यह अच्छा होगा कि ‘प्रभु-भोज’ को बाइबल-शास्त्रीय संदर्भ में रखें और हमारा ध्यान इस पर केन्द्रित करें कि क्यों और कैसे हम इस धर्म--विधि का पालन करते हैं। अतः आज हम संदेश को पहले रखेंगे और फिर उपदेश के साथ ‘प्रभु-भोज’ की ओर जायेंगे।

बाइबल के बाद, हमारे जीवनों और हमारी कलीसिया की अमोघ/अचूक नींव कौन सी है, हमारी कलीसिया के जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से एक है, बैतलहम बैपटिस्ट चर्च एल्डर अफर्मॆशन ऑफ फॆथ । मैं आप सभों को प्रॊत्साहित करता हूँ कि इसे पढ़ें। आप इसे चर्च की ‘वैबसाइट’ या ‘डिज़ायरिंग गॉड वैबसाइट’ पर देख सकते हैं। अनुच्छेद/पैराग्राफ 12. 4, इसकी धर्मशिक्षा संबंधी सारांश देता है कि ‘प्रभु-भोज’ के बारे में हम क्या विश्वास करते और सिखाते हैं:

हम विश्वास करते हैं कि ‘प्रभु-भोज’, प्रभु की एक धर्मविधि/रिवाज़ है, जिसमें एकत्र हुए विश्वासी रोटी खाते हैं, जो ‘उसके’लोगों के लिये दे दी गई मसीह की देह को सूचित करती है, और प्रभु के कटोरे में से पीते हैं, जो मसीह के लहू में ‘नयीवाचा’ को सूचित करता है। हम इसे प्रभु के स्मरण में करते हैं, और इस तरह ‘उसकी’ मृत्यु की घोषणा/प्रचार करते हैं, जब तक ‘वह’ न आये। वे जो योग्य रीति से खाते और पीते हैं, मसीह की देह और लहू के भागी होते हैं, भौतिक रूप से नहीं, अपितु आत्मिक रूप से, इस तरह, विश्वास के द्वारा, वे उन लाभों से पोषित होते हैं जो ‘उसने’ अपनी मृत्यु के द्वारा प्राप्त किये, और इस प्रकार वे अनुग्रह में बढ़ते हैं।

प्रभु-भोज की इस समझ के लिए मैं एक बाइबल-शास्त्रीय बुनियाद, छः शीर्षकों के अर्न्तगत देने का प्रयास करूँगा:

1) ऐतिहासिक आरम्भ ; 2) विश्वास करने वाले हिस्सेदार; 3) भौतिक क्रिया; 4) मानसिक क्रिया; 5) आत्मिक क्रिया; और 6) पवित्र गभ्भीरता।

1) प्रभु - भोज का ऐतिहासिक आरम्भ

मत्ती (26: 26 से आगे), मरकुस (14: 22 से आगे), और लूका (22: 14 से आगे) रचित सुसमाचार, सभी ‘अंतिम रात्रि-भोजन’ का विवरण देते हैं जो अपने मरने से पूर्व की रात्रि में यीशु ने अपने चेलों के साथ खाया। हर एक, यीशु द्वारा धन्यवाद देने अथवा रोटी और कटोरे को आशीषित करने और ये कहते हुए ‘उसके’ चेलों को देने का वर्णन करता है कि रोटी उसकी देह है और कटोरा वाचा का लहू है या ‘उसके’ लहू में नयी वाचा है। लूका 22: 19 में, यीशु कहते हैं, ‘‘मेरे स्मरण के लिये यही किया करो ।’’ यूहन्ना रचित सुसमाचार, खाने और पीने का विवरण नहीं देता, अपितु उन शिक्षाओं और क्रियाओं का जिनसे वो संध्या सराबोर हो गई।

जहाँ तक हम सबसे पूर्व के अभिलेखों से कह सकते हैं, कलीसिया ने वो किया जो यीशु ने कहा: उन्होंने यीशु के और‘उसकी’ मृत्यु के स्मरण में उस रात्रि-भोजन का पुनः अभिनय/प्रदर्शन किया। पौलुस की पत्रियाँ वे सबसे आरम्भिक साक्षी हैं जो हमारे पास हैं, और 1 कुरिन्थियों 11: 20 में, वह कलीसिया के जीवन में एक घटना का उल्लेख करता है जो ‘‘प्रभु-भोज’’ कहलाता है। यह सम्भवतः इसलिए ‘‘प्रभु-भोज’’ कहलाता है क्योंकि यह प्रभु यीशु के द्वारा स्थापित या नियुक्त किया गया था, और क्योंकि इसका अर्थ ही प्रभु की मृत्यु के स्मरण का अनुष्ठान करता है। पौलुस 1 कुरिन्थियों 11: 23-24 में कहता है, ‘‘क्योंकि यह बात मुझे प्रभु से पहुँची, और मैं ने तुम्हें भी पहुँचा दी; कि प्रभु यीशु ने जिस रात वह पकड़वाया गया रोटी ली। 24 और धन्यवाद करके उसे तोड़ी, और कहा; कि ‘यह मेरी देह है, जो तुम्हारे लिये है: मेरे स्मरण के लिये यही किया करो ।” ‘‘मुझे प्रभु से पहुँची . . . ’’ का सम्भवतः अर्थ है कि प्रभु ने स्वयँ इसे पौलुस (जो उस अंतिम रात्रि-भोजन पर नहीं था, जैसा कि अन्य प्रेरित थे) के लिए पुष्टि किया कि वो जो अन्य लोगों ने अंतिम रात्रि-भोजन के बारे में सूचित किया, वह वास्तव में हुआ।

अतः ‘प्रभु-भोज’ का ऐतिहासिक आरम्भ, वो अंतिम रात्रि-भोजन है जो यीशु ने अपने चेलों के साथ उस पूर्व रात्रि को खाया जब वह क्रूस पर चढ़ाया गया। इसकी क्रियाएँ और इसका अर्थ, सब उसमें जड़ पकड़े हुए हैं जो यीशु ने उस अंतिम रात्रि में कहा और किया। यीशु स्वयँ ‘प्रभु-भोज’ का उद्रगम/आरम्भ है। ‘उसने’ आज्ञा दी कि इसे जारी रखा जाए। और ‘वह’इसका केन्द्र और विषय-वस्तु है।

2) प्रभु भोज के, विश्वास करने वाले हिस्सेदार

प्रभु भोज कलीसिया में एकत्रित हुए ऎसे लोगों व परिवारों की एक क्रिया है, जो यीशु में विश्वास करते हैं । यह अविश्वासियों की एक क्रिया नहीं है। अविश्वासी उपस्थित हो सकते हैं--अवश्य, उपस्थित होने के लिए हम उनका स्वागत करते हैं--प्रभु भोज के बारे में कुछ गुप्त नहीं है। यह खुले-आम किया जाता है। इसका एक सार्वजनिक अर्थ है। यह एक गुप्त, जादुई शक्तियों के साथ किया जाने वाला धर्मपंथ का कर्मकाण्ड नहीं है। यह एकत्र हुई कलीसिया के द्वारा आराधना की एक सार्वजनिक क्रिया है। वास्तव में, 1 कुरिन्थियों 11: 26 में पौलुस कहता है, ‘‘जब कभी तुम यह रोटी खाते, और इस कटोरे में से पीते हो, तो प्रभु की मृत्यु को जब तक वह न आए, प्रचार करते हो।’’ अतः प्रभु-भोज का एक उद्घोषणा करने वाला पहलू है। उद्घोषणा, गोपनीयता नहीं, वो स्वर है जिस पर जोर दिया जाना चाहिए।

हम प्रभु-भोज का किसी उपचार-गृह या अस्पताल में किसी के पास ले जाने का निषेध नहीं करते, लेकिन उस प्रकार का व्यक्तिगत उत्सव मनाना (अनुष्ठान) अपवाद है, बाइबल-शास्त्रीय नियम नहीं। 1 कुरिन्थियों 11 में पाँच बार, पौलुस कलीसिया के ‘‘इकट्ठे होने’’ की बात कहता है, जब प्रभु-भोज खाया जाता है। पद 17ब: ‘‘तुम्हारे इकट्ठे होनॆ से भलाई नहीं, परन्तु हानि होती है।’’ पद 18: ‘‘क्योंकि पहले तो मैं यह सुनता हूँ, कि जब तुम कलीसिया में इकट्ठे होते हो, तो तुम में फूट होती है।’’ पद 20: ‘‘सो तुम जो एक जगह में इकट्ठे होते हो तो यह प्रभु भोज खाने के लिये नहीं ।’’ पद 33 : ‘‘जब तुम खाने के लिये इकट्ठे होते हो, तो एक दूसरे के लिये ठहरा करो ।’’ पद 34: ‘‘यदि कोई भूखा हो, तो अपने घर में खाले-जिस से तुम्हारा इकट्ठा होना दण्ड का कारण न हो।’’

दूसरे शब्दों में, वे लोग प्रभु-भोज को अपने नियमित रात्रि-भोजन के साथ निकटता से जोड़कर भ्रष्ट कर रहे थे, और कुछ लोगों के पास खाने को अत्याधिक होता था और कुछ के पास कुछ भी नहीं। इस कारण उसने कहा, घर पर अपना रात्रि- भोजन खाओ और प्रभु-भोज खाने के लिए इकट्ठे हो।

और पद 18 में शब्द ‘‘कलीसिया’’ पर ध्यान दीजिये: ‘‘जब तुम कलीसिया में इकट्ठे होते हो ।’’ ये मसीह की देह है, यीशु के अनुयायियों की सभा। वे जो मूरतों से फिर गये हैं और अपने पापों की क्षमा के लिए और सनातन जीवन की आशा के लिए, और अपने आत्मा की संतुष्टि के लिए, केवल यीशु पर विश्वास किया है। ये मसीही हैं। अतः प्रभु-भोज में हिस्सा लेने वाले, यीशु में विश्वास करने वाले इकट्ठा हुए लोग हैं।

3) प्रभु भोज की भौतिक क्रिया

प्रभु-भोज की भौतिक क्रिया, ऐसा भोजन खाना नहीं है जिसमें क्रम से सात प्रकार के व्यंजन हों। यह बहुत सरल है। यह रोटी खाना और कटोरे/कप में से पीना है। पद 23ब-25, ‘‘प्रभु यीशु ने . . . रोटी ली, और धन्यवाद करके उसे तोड़ी, और कहा; कि ‘यह मेरी देह है, जो तुम्हारे लिये है। मेरे स्मरण के लिये यही किया करो।’ इसी रीति से उस ने बियारी के पीछे कटोरा भी लिया, और कहा; ‘यह कटोरा मेरे लहू में नई वाचा है। जब कभी पीओ, तो मेरे स्मरण के लिये यही किया करो।”

रोटी के प्रकार के बारे में या ये किस प्रकार तोड़ी जाती है, कोई विशिष्ट विवरण नहीं दिया गया है। कटोरे में क्या था उसके बारे में एकमात्र बयान मत्ती, मरकुस, और लूका, प्रत्येक में एक आयत में दिया गया है: ‘‘मैं तुम से कहता हूं, कि दाख का यह रस उस दिन तक कभी न पीऊंगा, जब तक तुम्हारे साथ अपने पिता के राज्य में नया न पीऊं’’ (मत्ती 26: 29; तुलना कीजिये, मरकुस 14: 25; लूका 22: 18) । अतः इसे ‘‘दाख का रस’’ कहा जाता है। मैं नहीं सोचता कि हमें इस पर बड़ा विचार करना चाहिए कि साधारण अंगूर का रस उपयोग किया जाता है अथवा द्राक्षासव (वाइन/दाखों का आसवित रस) । मूल-पाठ में ऐसा कुछ नहीं है जो किसी एक की या दूसरे की आज्ञा देता अथवा निषेध करता है।

हमें जिस बारे में चिन्ता करनी चाहिए वो है आनन्द देने वाली विविध वस्तुएं-मान लीजिये, एक अलाव के चारों ओर चिप्स और कोक। प्रभु-भोज कोई खेलने की वस्तु नहीं है। हमें इसका अनुष्ठान/आयोजन एक महत्ता के बोध के साथ करना चाहिए-जिस बारे में हम एक क्षण में/थोड़ी ही देर में बात करेंगे।

शीघ्रता से मैं ये भी बताना चाहूँगा कि नया नियम में प्रभु-भोज की बारम्बारता के बारे में कुछ भी नहीं है। कुछ विश्वास करते हैं कि इसे सप्ताह-वार करना अच्छा रहेगा; दूसरे इसे त्रैमासिक रूप से अभ्यास में लाते हैं। हम मध्य में हैं और सामान्यतः इसे प्रत्येक माह के प्रथम रविवार को आयोजित करते/मनाते हैं। मैं सोचता हूँ कि हम इस बारे में स्वतंत्र हैं और प्रश्न इसका बनता है कि 1) परमेश्वर के वचन की सेवकाई के लगाव में कितनी बारम्बारता/आवृत्ति या अनावृत्ति इसके उचित महत्व से मेल खाती है ? और 2) कितनी बारम्बारता या अनावृत्ति इसके मूल्य को महसूस करने में हमारी सहायता करती है, बनिस्बत इसके कि इसके प्रति कठोर हृदय बन जाएं ? ये वे निर्णय हैं जिन्हें लेना सरल नहीं है, और विभिन्न कलीसियाएँ विभिन्न तरह से निर्णय लेती हैं।

4) प्रभु भोज की मानसिक क्रिया

प्रभु-भोज में हिस्सा लेने वालों की मानसिक क्रिया है यीशु पर मस्तिष्क को केन्द्रित करना और विशॆष रूप से हमारे पापों के लिए मरने में ‘उसके’ ऐतिहासिक कार्य पर। पद 24 और 25: ‘‘मेरे स्मरण के लिये यही किया करो।’’ जब हम खाने और पीने की भौतिक क्रिया करते हैं, हमें स्मरण करने की मानसिक क्रिया करना है। अर्थात्, हमें सचेत रूप से मस्तिष्क में यीशु के व्यक्तित्व को स्मरण में लाना है जैसा कि ‘वह’ एक समय जीवित था और यीशु का कार्य जैसा कि ‘वह’ एक बार मरा और फिर जी उठा, और हमारे पापों की क्षमा के लिए ‘उसके’ कार्य का क्या अर्थ है।

प्रभु-भोज एक सख्त स्मरण दिलाने वाला है, बारम्बार, कि मसीहियत, नये युग की आत्मिकता नहीं है। यह आपके अर्न्तमन के सम्पर्क में आना नहीं है। ये रहस्यवाद नहीं है। यह ऐतिहासिक तथ्यों में जड़ पकड़े हुए है। यीशु जीवित रहा। ‘उसके’ पास एक शरीर था और एक हृदय जिसने खून पम्प किया और चमड़ी थी जिससे खून बहा। ‘वह’ पापियों के स्थान पर, रोमी क्रूस पर सार्वजनिक रूप से मरा ताकि जो कोई ‘उस’ पर विश्वास करे, वो परमेश्वर के क्रोध से छुड़ाया जाए। वो इतिहास में एक बार और सदा के लिए घटित हुआ।

इसलिए, प्रभु-भोज की मानसिक क्रिया, बुनियादी रूप से स्मरण करना है। कल्पना करना नहीं। स्वप्न देखना नहीं। विचार-धारा नहीं। सुनना नहीं। उदासीनता में चले जाना नहीं। यह मस्तिष्क को विवेकपूर्ण ढंग से पीछे इतिहास में यीशु की ओर ले जाना है और उस ओर कि हम ‘उस’ के बारे में बाइबल से क्या जानते हैं। प्रभु-भोज, बारम्बार हमें इतिहास के बुनियाद में सुस्थिर करता है। रोटी और कटोरा। देह और लहू। प्राणदण्ड और मृत्यु ।

5) प्रभु भोज की आत्मिक क्रिया

ये अति महत्वपूर्ण है। कारण ये है कि अविश्वासी वो सब कुछ कर सकते थे जो अब तक मैंने वर्णन किया है। अवश्य ही, यदि शैतान देह धारण कर सकता, वो इसे कर सकता था। खाओ, पीओ, और स्मरण करो। उस बारे में अर्न्तनिहित रूप से कुछ भी आत्मिक नहीं है। अतः प्रभु-भोज के लिए कि यह क्या हो जैसा कि यीशु का अर्थ है कि यह हो, केवल खाने, पीने, और स्मरण करने से कुछ और अधिक घटित होना चाहिए। कुछ ऐसा जो अविश्वासी और शैतान नहीं कर सकते।

मुझे एल्डर अफर्मॆशन ऑफ फॆथ में सॆ प्रमुख वाक्य एक बार और पढ़ने दीजिये और तब बाइबल में सॆ दिखाने दीजिये कि यह कहाँ से आता है। ‘‘वे जो योग्य रीति से खाते और पीते हैं, मसीह की देह और लहू के भागी होते हैं, भौतिक रूप से नहीं, अपितु आत्मिक रूप से, इस तरह, विश्वास के द्वारा, वे उन लाभों से पोषित होते हैं जो ‘उसने’ अपनी मृत्यु के द्वारा प्राप्त किये, और इस प्रकार वे अनुग्रह में बढ़ते हैं।’’

‘‘मसीह की देह और लहू के भागी होते . . . आत्मिक रूप से . . . विश्वास के द्वारा’’ का विचार कहाँ से आता है ? इसे सहारा देने वाला मूल-पाठ, पिछले अध्याय में है: 1 कुरिन्थियों 10: 16-18। जैसे मैं इसे पढ़ता हूँ, पूछिये, “भागी होना’ का क्या अर्थ है ?

वह धन्यवाद का कटोरा, जिस पर हम धन्यवाद करते हैं, क्या मसीह के लहू की सहभागिता नहीं (कोईनोनिया एस्टिन तोयू हैमेटोस तोयू क्रिस्तोयू ) ? वह रोटी जिसे हम तोड़ते हैं, क्या वह मसीह के देह की सहभागिता नहीं (ओयूची कोईनोनिया तोयू सोमेटोस तोयू क्रिस्तोयू एस्टिन ) ? इसलिये, कि एक ही रोटी है सो हम भी जो बहुत हैं, एक देह हैं: क्योंकि हम सब उसी एक रोटी में भागी होते हैं। जो शरीर के भाव से इस्राएली हैं, उन को देखो: क्या बलिदानों के खाने वाले वेदी के सहभागी नहीं (कोईनोनिया नया तोयू थूसिआस्तरिआयू ) ?

यहाँ पर स्मरण करने से भी बहुत अधिक गहरा कुछ है। यहाँ विश्वासी हैं-वे जो यीशु मसीह पर विश्वास करते और उसे सँजोते(अपने मनों में) हैं-और पौलुस कहता है कि वे मसीह की देह और लहू में सहभागी हो रहे हैं। अक्षरश: , वे उसकी देह और लहू में हिस्सेदारी (कोईनोनिया) करने का अनुभव कर रहे हैं। वे उसकी मृत्यु में साझेदारी का अनुभव कर रहे हैं।

विश्वास के द्वारा,आत्मिक रुप से, मसीह की देह और लहू का भागी होना

और ये सहभागिता/हिस्सेदारी/साझेदारी का क्या अर्थ है ? मैं सोचता हूँ, पद 18 हमें सुराग़ देता है क्योंकि यह एक समान शब्द उपयोग करता है, किन्तु इसकी तुलना उससे करता है कि यहूदियों के बलिदानों में क्या होता है: ‘‘जो शरीर के भाव से इस्राएली हैं, उन को देखो: क्या बलिदानों के खाने वाले वेदी के सहभागी (उसी शब्द का एक रूप) नहीं ?’’ वेदी में साझेदार/सहभागी/हिस्सेदार का क्या अर्थ है ? इसका अर्थ है कि वेदी पर जो हुआ, वे उसमें साझेदारी कर रहे हैं अथवा उससे लाभ पा रहे हैं। वे आनन्द उठा रहे हैं, उदाहरण के लिए, क्षमा और परमेश्वर के साथ बहाल की गई संगति।

अतः पद 16 व 17 को मैं इस अर्थ में लेता हूँ कि जब विश्वासी भौतिक रूप से रोटी खाते और कटोरे में से पीते हैं, हम आत्मिक रूप से अन्य प्रकार का खाना और पीना करते हैं। हम खाते और पीते हैं--अर्थात्, जो क्रूस पर हुआ--हम उसे अपने जीवनों में लेते हैं। विश्वास के द्वारा--उस सब में भरोसा करते हुए जो परमेश्वर हमारे लिए यीशु में है--हम उन लाभों से स्वयँ को पोषित करते हैं जो यीशु ने हमारे लिए प्राप्त किये जब वह लहू बहाकर क्रूस पर मर गया।

यही कारण है कि हम माह-ब-माह प्रभु की मेज पर विभिन्न बिन्दुओं पर एकाग्र करने में आपकी अगुवाई करते हैं (परमेश्वर के साथ मेल, मसीह में आनन्द, भविष्य के लिए आशा, भय से मुक्ति, विपत्ति में सुरक्षा, व्याकुलता में मार्गदर्शन, रोग से चंगाई, परीक्षा में विजय, आदि)। इसलिए कि जब यीशु मरा, उसके बहाये हुए लहू और तोड़ी गई देह ने, जो हमारे बदले में उसकी मृत्यु में चढ़ायी गई, परमेश्वर की सारी प्रतिज्ञाओं को मोल ले लिया। पौलुस कहता है, ‘‘परमेश्वर की जितनी प्रतिज्ञाएं हैं, वे सब उसी में हाँ के साथ हैं’’(2 कुरिन्थियों 1: 20)। परमेश्वर का हर एक वरदान, और परमेश्वर के साथ हमारी आनन्दमय संगति, यीशु के लहू के द्वारा प्राप्त किये गये। जब पौलुस कहता है, ‘‘वह धन्यवाद का कटोरा, जिस पर हम धन्यवाद करते हैं, क्या मसीह के लहू की सहभागिता नहीं? वह रोटी जिसे हम तोड़ते हैं, क्या वह मसीह के देह की सहभागिता नहीं ?’’ उसका अर्थ है: प्रभु की मेज पर क्या हम विश्वास के द्वारा आत्मिक रूप से, हर एक आत्मिक आशीष पर, जो मसीह की देह और लहू के द्वारा मोल ली गई, दावत/भोज नहीं करते ? कोई भी अविश्वासी ये नहीं कर सकता।

शैतान ये नहीं कर सकता। ये परिवार के लिए एक वरदान/उपहार है। जब हम प्रभु-भोज का उत्सव मनाते हैं, हम विश्वास के द्वारा आत्मिक रूप से, परमेश्वर की हर एक प्रतिज्ञा पर दावत करते हैं, जो यीशु के लहू के द्वारा मोल ली गई हैं ।

6) प्रभु भोज की पवित्र गम्भीरता

मैं उस तरह से समापन करता हूँ जैसा पौलुस 1 कुरिन्थियों 11 में करता है। वह चेतावनी देता है कि यदि आप प्रभु-भोज में एक अश्वारोही, उदासीन, लापरवाह तरीके से आयॆं जो उस गम्भीरता की समझ नहीं रखता कि क्रूस पर क्या हुआ, यदि आप एक विश्वासी हैं, हो सकता है, अपनी जिन्दगी खो दें, क्रोध के कारण नहीं, किन्तु परमेश्वर के एक पिता-स्वरूप अनुशासन की क्रिया के रूप में। जब हम आनन्दपूर्वक और गम्भीरता से प्रभु की मेज की ओर बढ़ते हैं, मुझे साधारण रूप से धीरे-धीरे 1 कुरिन्थियों 11: 27-32 पढ़ने दीजिये।

इसलिये जो कोई अनुचित रीति से (अर्थात्, मसीह के बहुमूल्य वरदान पर भरोसा न रखते हुए और अपने अन्दर न सँजोते हुए ) प्रभु की रोटी खाए, या उसके कटोरे में से पीए, वह प्रभु की देह और लहू का अपराधी ठहरेगा। 28 इसलिये मनुष्य अपने आप को जाँच ले (यह देखने के लिए नहीं कि आप पर्याप्त भले हैं या नहीं, अपितु यह देखने कि क्या आप अपने स्वयं से मुड़ जाने और जो आपको आवश्यकता है उसके लिए यीशु पर भरोसा रखने के इच्छुक हैं ) और इसी रीति से इस रोटी में से खाए, और इस कटोरे में से पीए। 29 क्योंकि जो खाते-पीते समय प्रभु की देह को न पहचाने (अर्थात्, बिना इस बारे में सचेत हुए कि इस रोटी से एक मछली की सेन्डविच के समान बर्ताव नहीं करना है, जैसा कि कुछ लोग कुरिन्थुस में कर रहे थे ), वह इस खाने और पीने से अपने ऊपर दण्ड लाता है। 30 (और उसके कहने का क्या अर्थ है, वो यहाँ है ) इसी कारण तुम में बहुतेरे निर्बल और रोगी हैं, और बहुत से सो भी गए हैं (नरक में भेजे जाने के लिए नहीं ; अगली आयत समझाती है )। 31 यदि हम अपने आप को जाँचते, तो दण्ड न पाते। 32 परन्तु प्रभु हमें दण्ड देकर हमारी ताड़ना करता है (अर्थात्, कुछ दुर्बल, और रोगी हैं, और मर रहे हैं ) इसलिये कि हम संसार के साथ दोषी (अर्थात्, नरक में जाने के लिए ) न ठहरें।

प्रभु-भोज को हल्के रूप में न लें। ये सर्वाधिक बहुमूल्य वरदानों में से एक है जो मसीह ने ‘उसकी’ कलीसिया को दिया है। आइये हम इसे मिलकर खायें।